पटनासाहिब लोकसभा क्षेत्र जहां इस बार दो दिग्गजों के बीच सीधा मुकाबला

इस रणभूमि में दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों, जिनकी पुरानी दोस्ती और इस रिश्ते की गहराई इस बात से ही मापी जा रही है कि ये दोनों दोस्त अब सियासी दुश्मनी निभाने के लिए मैदान में हैं। दोनों कायस्थ समाज से हैं। दोस्ती भी पुरानी है। अब सियासी दुश्मनी भी जमकर होगी।

दो दिग्गजों के बीच कठिन संघर्ष का माहौल तैयार

पटनासाहिब सीट पर इन दोनों दिग्गजों के बीच कठिन संघर्ष का माहौल बन चुका है। अभिनेता से नेता बने शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा से 35 साल का सियासी संबंध खत्म करके कांग्रेस के टिकट पर पटना साहिब से कमल की कहानी को खामोश करने की कोशिश में हैं। दूसरी ओर भाजपा से टिकट लेकर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद उनके रास्ते के बीच आ गए हैं। 

शत्रुता और शालीनता के बीच होगा अद्बुत घमासान

गंगा के दक्षिणी किनारे पर बसे पटना साहिब की अपनी पुरानी पहचान है, किंतु अतीत के पन्ने अभी बंद ही रखिए और वर्तमान में आइए। चुनावी तपिश को महसूस कीजिए। यहां सियासत के कई रंग हैं…रोमांच है…शत्रुता और शालीनता के संगम के साथ अद्भुत घमासान भी है। दो दिग्गजों के बीच नई पारी के लिए नई पटकथा तैयार हो गई है।

इत्मीनान में हैं पटना साहिब के मतदाता 

यहां सातवें चरण में मतदान है। इसलिए मतदाता इत्मीनान में हैं, लेकिन रणभूमि में दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों के बीच कठिन संघर्ष का माहौल बन चुका है।

कायस्थों, वैश्यों, यादवों और भूमिहारों की बहुलता वाले इस क्षेत्र के लिए नामांकन 22 अप्रैल से शुरू होने वाला है। इसलिए बाकी खिलाड़ी अभी नेपथ्य में हैं। सिर्फ भाजपा और कांग्रेस ने ही अपने प्रत्याशी पर्दे से बाहर निकाले हैं। कुल 21.36 लाख मतदाताओं व छह विधानसभा क्षेत्रों वाले पटना संसदीय क्षेत्र में कमल खिलने की शुरुआत 1989 में हो चुकी थी।

इस सीट से चार बार भाजपा अपराजेय रही है

बिहार में जनसंघ के संस्थापकों में शुमार ठाकुर प्रसाद के पुत्र रविशंकर प्रसाद के लिए सुकून की बात है कि पिछले 20 वर्षों में हुए कुल पांच आम चुनावों में चार बार भाजपा अपराजेय रही है। नए परिसीमन में क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति में तब्दीली के बाद तो यह क्षेत्र कमल के लिए सर्वाधिक अनुकूल हो गया है।

2009 और 2014 के आम चुनावों में भाजपा भारी अंतर से अपने प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ती आ रही है। शत्रुघ्न ने 2009 में अपनी ही बिरादरी के शेखर सुमन और 2014 में कुणाल सिंह को भारी फासले से हराया था। कांग्रेस को सभी छह विधानसभा क्षेत्रों में करारी शिकस्त मिली थी।

राहत की तलाश करना चाहें तो शत्रुघ्न भी कर सकते हैं, क्योंकि पिछली दो लड़ाई की विजेता पार्टी भले भाजपा थी, किंतु किरदार वही थे। रविशंकर को पुराने मित्र बताने वाले शत्रुघ्न ने पांच दलों के महागठबंधन से नजदीकियां बढ़ाकर अबकी पाला बदला है, फनकारी नहीं।

अब पलट गई है पटकथा 

सोनिया गांधी और लालू परिवार की नजरों में शत्रुघ्न आज भी सुपर हिट फिल्मों के हीरो की तरह हैं, लेकिन भाजपा के कोर समर्थक इन्हें विलेन से ज्यादा नहीं आंक रहे। इसकी वजह भी है। बिहारी बाबू ने पटना में पिछले 10 वर्षों के दौरान जिनके समर्थन के दम पर सियासत में सुयश लूटा, वे सब अब उनके खिलाफ हैं। पक्ष में वे लोग खड़े हैं, जो पिछली दो बार से इन्हें रिजेक्ट करते आ रहे हैं।
इस उलटबांसी की अनदेखी नहीं की जा सकती है, क्योंकि पिछली बार 4.86 लाख मतदाताओं ने इन्हें पसंद किया था। निकटतम प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के कुणाल सिंह भी भोजपुरी फिल्मों के कलाकार हैं, जिन्हें राजद के समर्थन और मजबूत माय समीकरण के बावजूद 2.20 लाख वोट ही मिल सके थे। अबकी पटकथा पलट गई है। कुणाल की जगह खुद शत्रुघ्न खड़े हैं और शत्रुघ्न कीजगह रविशंकर प्रसाद।

इस बार बिहारी बाबू के लिए आसान नहीं होगी जीत

2.65 लाख वोटों के बड़े फासले को पाटना बिहारी बाबू के लिए आसान नहीं होगा। दोनों की हार-जीत की सर्वव्यापी चर्चा होनी तय है। रविशंकर की जीत से इस गर्मी में भी भाजपा के दिल को बर्फ-सी ठंडक मिल सकती है और शत्रुघ्न की जीत राहुल और लालू परिवार का उत्साह बढ़ा सकती है। साथ ही बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में शत्रुघ्न सिन्हा की पूछ महागठबंधन में महानायक की तरह हो सकती है। 

शत्रुघ्न के भाजपा से बैरी होने की कहानी एक दिन की नहीं

अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में शत्रुघ्न ने 1984 में जब पहली बार कमल के फूल से दिल लगाया था तो उनके तेजस्वी-ओजस्वी व्यक्तित्व के बूते उन्हें भाजपा ने स्टार प्रचारक बनाया था। 1992 में उन्हें नई दिल्ली संसदीय सीट से राजेश खन्ना के खिलाफ उतारा गया था। हार गए थे। भाजपा ने उन्हें हारने पर भी पुरस्कार दिया। 1996 और 2002 में राज्यसभा भेजा।
2003 में कैबिनेट मंत्री बने। 2009 और 2014 में पटना साहिब से सांसद चुने गए। लगभग इसी दौरान भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन के बाद आडवाणी के साथ मुखर रूप से खड़े रहने वाले बिहारी बाबू की तमन्ना पूरी नहीं हुई तो आरपार पर उतर आए। खफा ऐसे हुए कि पांच साल तक अपने खेमे की ओर ही गोले दागते रहे और विपक्ष से तालियां पिटवाते रहे। पूरे पांच साल तक फील्ड में उनका प्रदर्शन अपनी ही पार्टी पर भारी पड़ता रहा। फिर भी भाजपा चुप रही। क्यों? इसकी अलग व्याख्या हो सकती है। अभी इतना ही समझ लीजिए कि इसी तरह के आरोप में दरभंगा वाले कीर्ति आजाद को निलंबित कर दिया गया था।

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