इस तरह हुई थी महाभारत के कुंती, धृतराष्ट्र और गांधारी की मृत्यु
आप सभी ने महाभारत पढ़ी और सुनी ही होगी. ऐसे में कहा जाता है महाभारत के युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर हस्तिनापुर के महाराज बन गए तब कौरवों के पिता धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गांधारी और पांडवों की मां कुंती के साथ वन के लिए रवाना हो गए थे. जी हाँ, वहीं जब यह तीनों युधिष्ठिर के पास वन की ओर जाने के लिए आज्ञा लेने पहुंचे तो युधिष्ठिर व सभी भाइयों ने उन्हें जाने से रोक लिया, लेकिन भीम कौरवों के प्रति अपनी ईर्ष्या को अधिक दिनों तक दबाकर नहीं रख पाए और जब तब धृतराष्ट्र को ताना मारने लगे. उसके बाद एक दिन भीम के मुंह से कुछ ऐसी बात निकल गई जो धृतराष्ट्र के हृदय में चुभ गई और उन्होंने तय कर लिया कि अब वह राजमहल में नहीं रहेंगे.
धृतराष्ट्र गंधारी को लेकर वन जाने लगे तो कुंती भी साथ में वन जाने की जिद्द करने लगी. उसके बाद युधिष्ठिर ने उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन तीनों नहीं माने. वहीं उसी समय वेदव्यास जी भी राजमहल में पधारे और युधिष्ठिर को तीनों को वन जाने की आज्ञा देने के लिए मना लिया और वेदव्यास जी अपने साथ ही धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती को साथ लेकर वन में चले गए. उसके कई सालों तक तीनों वानप्रस्थ आश्रम यानी साधु संयासी की तरह जीवन यापन करते हुए वन में रहे और राजसी जीवन से वनवासी की तरह जीवन यापन करने से इनका बुढ़ा शरीर कमजोर होने लगा. उसके बाद एक दिन संयोगवश वन में आग लग गई और सभी लोग अपनी-अपनी जान बचाकर भागने लगे. उस दौरान धृतराष्ट्र भी गांधारी और कुंती के साथ भागे लेकिन कमजोर शरीर के कारण यह अधिक भाग नहीं सके और वन की आग में घिर गए. वहीं उसके बाद बचने से सारे रास्ते बंद नजर आने लगे तब तीनों ध्यान मुद्रा में बैठ गए और इसी अवस्था में वन की आग में जलकर मृत्यु को प्राप्त हो गए.
इसी के साथ एक अन्य कथा के मुताबिक वानप्रस्थ आश्रम का नियम था कि जब तक शरीर में ताकत है और आपको लगता है कि आप इस आश्रम का पालन कर सकते हैं तब तक इनका पालन करें. अगर समय से पहले शरीर कमजोर पड़ जाए और आप आश्रम के नियम का पालन नहीं कर पाएं तो ध्यान करते हुए अपने प्राण ईश्वर को सौंप दें. कहते हैं धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती भी समय से पहले कमजोर हो गए थे और उन्हें लगने लगा था कि अब वह और इस आश्रम के नियम को नहीं निभा सकते इसलिए उन्होंने ध्यान करते हुए अपने प्राण त्याग दिए.