पहाड़ में रहकर पहाड़ को जी रहे पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट, पढ़िए पूरी खबर
‘पहाड़ की पीठ पर बंधा हुआ पहाड़, जब बोलता है तो बच जाता है जंगल।’ ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी हैं प्रसिद्ध पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट। अभावों के बीच से निकले पहाड़ के इस पुत्र के जीवन का एकमात्र ध्येय पहाड़ में रहकर पहाड़ को ही जीना है। पर्यावरण चेतना और चिपको आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने की उनकी कार्यक्षमता का ही नतीजा है कि रैणी गांव में गौरा देवी ‘चिपको’ आंदोलन के लिए प्रेरित हुईं। उनके आंदोलन से जुड़कर तमाम लोग पर्यावरणीय संतुलन के लिए पेड़ों के मित्र बन गए। समतामूलक समाज, श्रम की महत्ता, दलित एवं महिलाओं को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने और जनशक्ति से राजशक्ति को संचालित करने के विचार को व्यवहार में उतारने वाले भट्ट गांधीजी की राह पर चलने वाले एक सफल जननेता हैं।
भट्ट सातवें दशक की शुरुआत में सर्वोदयी विचारधारा के संपर्क में आए। उन्होंने जयप्रकाश नारायण व आचार्य विनोबा भावे को अपना आदर्श बनाया और अपने क्षेत्र में श्रम की प्रतिष्ठा, सामाजिक समरसता, नशाबंदी व महिला एवं दलितों के सशक्तीकरण के कार्य में जुट गए। वर्ष 1964 में उन्होंने ‘दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल’ की स्थापना की। जिसने वर्ष 1970 की अलकनंदा नदी में आई बाढ़ के प्रभावों का आकलन कर निष्कर्ष निकाला कि वनों के अंधाधुंध कटान से विनाश लीला बढ़ी है।
इसी की परिणति वर्ष 1973 में ‘चिपको’ आंदोलन के रूप में हुई। तब प्रबल जनमत के दबाव में सरकार के स्तर पर गठित विशेषज्ञ समिति ने भी माना कि वनों के कटान की योजनाएं वन एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं। इसके बाद वन विभाग को वनों की कार्ययोजनाओं पर पुनर्विचार के लिए बाध्य होना पड़ा। लोक कार्यक्रम के रूप में संचालित इस अभियान की सफलता का मूल्यांकन भारतीय विज्ञान संस्था, केंद्रीय योजना आयोग और अनेक विशेषज्ञों ने किया। इसका निष्कर्ष था कि उनके नेतृत्व में ग्रामीणों का कार्य वन विभाग के कार्यों से कहीं अधिक सफल है।
हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को समझने और देश के विभिन्न भागों में लोगों की समस्याओं, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अध्ययन के लिए भट्ट ने हिमालय के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक की यात्राएं की। इस दौरान लोक कार्यक्रमों एवं लोक ज्ञान के आदान-प्रदान के अलावा उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में जनांदोलनों में सक्रिय भागीदारी भी निभाई। रूस, अमेरिका, जर्मनी, जापान, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, फ्रांस, मैक्सिको, थाईलैंड, स्पेन, चीन आदि देशों की यात्रा, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी के साथ ही भट्ट ने राष्ट्रीय स्तर की अनेक समितियों व आयोगों में अपना व्यावहारिक ज्ञान एवं अनुभव बांटे।
ऐसे हुई चिपको आंदोलन की शुरुआत
वर्ष 1972 में भट्ट को एक घटना ने ऐसा झकझोरा कि उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन पर्यावरण के लिए समर्पित कर दिया। दरअसल खेतों में काश्तकारी के लिए हल पर प्रयोग होने वाले जुआ, नेसुड़ा, लाठ सहित अन्य काम में आने वाली अंगू व मेल की लकड़ी को वन विभाग ने प्रतिबंधित कर दिया। तर्क दिया गया कि विज्ञान की दृष्टि से इनका परंपरागत कार्यों के लिए उपयोग ठीक नहीं है, लिहाजा चीड़ व तुन की लकड़ी के कृषि यंत्र बनाएं जाएं। जबकि, चीड़ व तुन भारी होने के कारण किसी भी दृष्टि से इसके लिए उपयुक्त नहीं थे। भट्ट सरकार के इस तुगलकी फरमान से आहत थे कि तभी वर्ष 1973 में साइमन कंपनी को मेल व अंगू के वृक्षों का कटान कर इससे टेनिस, बैडमिंटन व क्रिकेट के बल्ले सहित अन्य खेल सामग्री को बनाने की अनुमति दे दी गई। फिर क्या था भट्ट के नेतृत्व में अप्रैल 1973 में मंडल में पेड़ों पर चिपककर साइमन कंपनी के मजदूरों व अधिकारियों को बैरंग लौटा दिया गया। यहीं से हुई एतिहासिक चिपको आंदोलन की शुरुआत।
चंडी प्रसाद भट्ट एक परिचय
प्रख्यात पर्यावारणविद् चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म 23 जून 1934 को चमोली जिले के गोपेश्वर गांव में हुआ। भट्ट जब एक वर्ष के थे, उनके सिर से पिता गंगाराम भट्ट का साया उठ गया। ऐसे में परिवार को आर्थिक संकट से जूझना पड़ा। जैसे-तैसे हाईस्कूल तक की पढ़ाई पूरी कर वह आगे की पढ़ाई के रुद्रप्रयाग आ गए और सच्चिदानंद इंटर कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन, आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई जारी नहीं रख सके। इसके बाद कुछ समय उन्होंने एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी की। बाद में एक परिवहन कंपनी में बुकिंग क्लर्क भी रहे। वर्ष 1955 में डिम्मर गांव की देवेश्वरी से उनका विवाह हुआ। भट्ट के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं। वर्ष 1956 में जयप्रकाश नारायण बदरीनाथ यात्रा पर आए। उनसे मुलाकात का भट्ट पर ऐसा असर हुआ कि वर्ष 1960 में वह नौकरी से त्यागपत्र देकर सर्वोदय आंदोलन में कूद पड़े। इसी दौरान पहाड़ों में विकास के नाम पर वृक्ष कटते देख उनका अंतर्मन कराह उठा और वह पर्यावरण की रक्षा के लिए मैदान में उतर गए।