यूपी विधानसभा चुनाव: सपा बना रही हैं सियासी ठिकाना…
उत्तर विधानसभा चुनाव में महज एक साल का वक्त बचा है, ऐसे में सूबे की सियासी सरगर्मी बढ़ती जा रही है. राजनीतिक दल अपने सियासी-सामाजिक समीकरण दुरुस्त करने में जुटे हैं तो नेता अपने सियासी भविष्य के लिए सुरक्षित ठिकाने तलाशने में जुट गए हैं. ऐसे में आयाराम और गयाराम का दौर भी तेजी से शुरू हो गया है. सूबे में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी सत्तासीन है, लेकिन दल बदल करने वाले नेताओं का राजनीतिक ठिकाना और पहली पसंद समाजवादी पार्टी बनती जा रही है.
2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से करीब 2 दर्जन से ज्यादा बसपा नेताओं ने पार्टी कोअलविदा कहकर सपा का दामन थामा तो करीब एक दर्जन से ज्यादा बड़े नेता कांग्रेस का हाथ छोड़कर अखिलेश यादव की साइकिल पर सवार हो चुके हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि यूपी में बसपा प्रमुख मायावती और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के मुकाबले सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर गैर-बीजेपी नेता ज्यादा भरोसा दिखा रहे हैं?
बसपा नेताओं को भविष्य की चिंता
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं कि एक विपक्षी दल के रूप में बसपा अपनी भूमिका का निर्वाहन सही तरीके से नहीं कर पा रही हैं बल्कि कई मुद्दों पर मायावती सरकार के सलाहकार की भूमिका में खड़ी दिखी हैं. इसके अलावा जमीनी आधार पर भी बसपा सूबे में कहीं नजर नहीं आ रही है, जिसके चलते पार्टी के तमाम नेताओं को अपने सियासी भविष्य की चिंता सता रही है. कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि वो तीस साल से सत्ता से बाहर है, जिसके चलते न तो पार्टी के पास जनाधार बचा है और न ही जमीनी स्तर पर मजबूत संगठन है. वहीं, प्रियंका गांधी सूबे में अपनी सक्रियता को भी लगातार बरकरार नहीं रख पा रही है, जिसके कांग्रेस के नेताओं को जीत का विश्वास नहीं हो पा रहा है.
सियासी संकटों और अपने राजनीतिक आधार को बचाने की जिद्दोजहद से जूझ रही बसपा प्रमुख मायावती को गुरुवार को बड़ा झटका लगा है. उत्तर प्रदेश विधानसभा बजट सत्र के पहले दिन ही बसपा के 9 असंतुष्ट विधायकों ने स्पीकर हृदय नारायण दीक्षित से मुलाकात कर खुद को पार्टी विधानमंडल दल से अलग बैठने की व्यवस्था देने की मांग की. बसपा के बागी विधायक असलम राईनी ने विधानसभा अध्यक्ष से मुलाकात के बाद कहा कि बसपा में अब केवल 6 विधायक ही बचे हैं और हमारी संख्या अब पार्टी के संख्या से अधिक है. लिहाजा हमारे ऊपर दलबदल कानून भी लागू नहीं होता है और हमें सदन में बैठने की बसपा नेताओं से अलग जगह दी जाए. वहीं, कांग्रेस के दो विधायक अदिति सिंह और राकेश प्रताप सिंह पहले से ही बागी रुख अपनाए हुए हैं.
उत्तर प्रदेश की सियासत में कांग्रेस तीन दशक से सत्ता का वनवास झेल रही है तो बसपा का 2012 के बाद से ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है. बसपा 2017 के चुनाव में सबसे निराशाजनक प्रदर्शन करते हुए महज 19 सीटें ही जीत सकी थी, लेकिन उसके बाद से यह आंकड़ा घटता ही जा रही है. बसपा के कुल 15 विधायक बजे थे, जिनमें से 9 विधायकों के बागी रुक अपनाने के बाद पार्टी के पास विधायकों की संख्या महज 6 रह गई है. बागी विधायक असलम राईनी ने कहा कि बहुत जल्द नई राजनीतिक पारी की शुरुआत नई ऊर्जा के साथ करेंगे.
बसपा विधायकों की संख्या लगातार घट रही
माना जा रहा है कि बसपा के 9 असंतुष्ट विधायकों में से 7 विधायक सपा का दामन थाम सकते हैं और दो विधायक बीजेपी के साथ खड़े हैं. राज्यसभा चुनाव के दौरान असलम राइनी, असलम अली, मुजतबा सिद्दीक, हाकिम लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल और वंदना सिंह ने अखिलेश यादव से मुलाकात की थी, जिसके बाद इन सभी नेताओं के सपा में शामिल होने की चर्चाएं थी. इसी के बाद मायावती ने इन सात विधायकों को निष्कासित कर दिया था और सभी की सदस्यता रद्द करने की स्पीकर को पत्र भी लिखा था. इसके अलावा उन्होंने अनिल सिंह और रामवीर उपाध्याय को पहले ही बीजेपी के साथ जाने के लिए निष्कासित कर चुकी हैं.
वहीं, लोकसभा चुनाव के बाद से करीब 2 दर्जन से ज्यादा बसपा नेताओं ने पार्टी को अलविदा कहकर सपा का दामन थाम लिया. इसमें ऐसे भी नेता शामिल हैं, जिन्होंने बसपा को खड़ा करने में अहम भूमिका अदा की थी. बीएसपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दयाराम पाल, कोऑर्डिनेटर रहे मिठाई लाल पूर्व मंत्री भूरेलाल, इंद्रजीत सरोज, कमलाकांत गौतम, बसपा के पूर्व सांसद त्रिभुवन दत्त, पूर्व विधायक आसिफ खान बब्बू जैसे नेताओं ने मायावती का साथ छोड़कर सपा की सदस्यता ग्राहण कर चुके हैं.
बसपा की तरह कांग्रेस नेताओं का भी अपनी पार्टी से मोहभंग हुआ है. पूर्व केंद्रीय मंत्री व बदायू से पूर्व सांसद सलीम शेरवानी, उन्नाव की पूर्व सांसद अन्नू टंडन, मिर्जापुर के पूर्व सांसद बाल कुमार पटेल, सीतापुर की पूर्व सांसद कैसर जहां, अलीगढ़ के पूर्व सांसद विजेन्द्र सिंह, पूर्व मंत्री चौधरी लियाकत, पूर्व विधायक राम सिंह पटेल, पूर्व विधायक जासमीन अंसारी, अंकित परिहार और सोनभद्र के रमेश राही जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर सपा का दामन थाम लिया है. इन सारे नेताओं को अखिलेश यादव ने खुद उन्हें पार्टी में शामिल कराया है.
बीजेपी का विकल्प सपा
समाजवादी पार्टी के पूर्व मंत्री और प्रवक्ता अताउर रहमान ने कहते हैं कि उत्तर प्रदेश की सियासी तस्वीर साफ है कि बीजेपी का विकल्प सिर्फ सपा है. यही वजह है कि कांग्रेस ही नहीं बल्कि बसपा के भी बड़े नेता सपा में शामिल हो रहे हैं. 2022 की सीधी लड़ाई योगी बनाम अखिलेश की होगी. मायावती बीजेपी की बी-टीम बन चुकी हैं. ऐसे में सपा ही यूपी के लिए मजबूत विकल्प है और सूबे के लोग अखिलेश यादव के विकास कार्यों को देख चुके हैं. हालांकि, कांग्रेस का कहना है कि यूपी में विपक्ष की भूमिका सपा नहीं बल्कि कांग्रेस ने निभा रही है.
वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्रा कहते हैं कि फिलहाल यूपी में बीजेपी का विकल्प के रूप में सपा अपने आपको स्थापित करने में काफी हद तक कामयाब है. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि सपा के पास एख अपना वोटबैंक है, जो पूरी मजबूती के साथ है. इसके अलावा अखिलेश ने मायावती की तरह से सरकार के समर्थन में नहीं खड़े रहे बल्कि विपक्ष के नेता के तौर पर तमाम मुद्दों पर आलोचना करते नजर आए हैं. इसके अलावा मुस्लिम समुदाय के बीच भी अखिलेश की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं दिख रही है.
दलबदल करने वाले ज्यादा नेता एंटी-बीजेपी विचारधारा के हैं
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि यूपी में बसपा और कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं में बड़ी तादाद एंटी-बीजेपी विचारधारा वाले नेताओं की है. इनमें दलित और मुस्लिम की संख्या है, जिनका बीजेपी में जाने का कोई औचित्य नहीं दिख रहा है. ऐसे में उनके पास सूबे में सिर्फ सपा ही एक विकल्प दिखती है. इसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि सपा के साथ 10 फीसदी यादव और 20 फीसदी मुस्लिम वोट हैं. यह 30 फीसदी वोट यूपी की सियासत में काफी अहम माना जाता है, जो दलबदल करने वाले नेताओं को आकर्षित कर रहा है. वहीं, कांग्रेस जिस तरह से मेहनत कर रही है, वो अभी वोटों में तब्दील नहीं होता दिख रहा है. इसीलिए तमाम दलों के बागी नेताओं का ठिकाना सपा बन रही है.