उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर बढ़ी बेचैनी
लखनऊ। उप्र मंत्रिमंडल के विस्तार को लेकर बेचैनी बढ़ती जा रही है। आइएएस अधिकारी से भाजपा एमएलसी बने ए.के. शर्मा की ताजपोशी को लेकर वर्तमान नेतृत्त्व असमंजस की स्थिति में है। संभवतः मंत्रिमंडल विस्तार में देरी का यही कारण भी है।
इसी साल जनवरी में आइएएस अधिकारी पद से वीआरएस लेकर भाजपा एमएलसी बने ए.के. शर्मा के पार्टी में आने के साथ ही खलबली मची हुई है। उसका कारण है ए.के. शर्मा की कार्यशैली व इसी के दम पर पीएम मोदी का उन पर अगाध विश्वास।
1988 बैच के गुजरात कैडर के आइएएस अधिकारी ए.के. शर्मा प्रधानमंत्री मोदी के साथ तब से काम कर रहे हैं जब मोदी का गुजरात की राजनीति में उदय हुआ था और वो साल था 2001. लगभग 20 सालों के मोदी के बेहद विश्वासपात्र बने शर्मा का उप्र की राजनीति में प्रवेश किसी धमाके से कम नहीं था।
चुनावी वर्ष से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपने खास सिपहसलार को अगर वीआरएस दिलवाकर उप्र जैसे बड़े सूबे की राजनीति में उतारा तो यह वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए जरूर एक सन्देश था। वैसे भी मोदी अपने फैसलों से हमेशा ही लोगों को चौंकाते आए हैं।
अब यह तो राजनीति का ककहरा सीख रहा बच्चा भी बता देगा कि सीनियर आइएएस अधिकारी, वो भी पीएमओ में, के पद से त्यागपत्र देकर ए.के. शर्मा सिर्फ एमएलसी बनने तो आए नहीं हैं, जरूर उन्हें कोई बड़ा आश्वासन मिला होगा।
तो क्या यह बात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नहीं समझ रहे होंगे? ऐसा सोचना भी अतार्किक होगा और शायद यही उप्र मंत्रिमंडल के विस्तार में देरी का सबसे बड़ा कारण है।
कहते हैं कि अगर किसी रेखा को काटे या मिटाए बिना उसे छोटा करना है तो उसके सामने बड़ी रेखा खींच दो, वो अपने आप छोटी हो जाएगी। ए.के. शर्मा संभवतः वही बड़ी रेखा हैं।
दूसरी बात जो ए.के. शर्मा वर्तमान नेतृत्त्व के सामने चुनौती बने हैं वो है उनकी कर्मठता, कार्यशैली व प्रशासनिक अनुभव जो उन्हें सबसे अलग करता है।
कोरोना की दूसरी लहर जब प्रदेश भर में कोहराम मचा रही थी उस वक़्त ए.के. शर्मा वाराणसी सहित समूचे पूर्वांचल में मिली कोविड नियंत्रण की जिम्मेदारी को इस तरह संभाल रहे थे जिसके मुरीद प्रधानमंत्री तक हो गए। यही नहीं कोविड नियंत्रण के काशी मॉडल की सराहना व चर्चा पूरे देश में हुई।
अब ए.के. शर्मा ने जो ट्रेलर कोविड नियंत्रण की जिम्मेदारी बहुत अच्छे तरीके से संभाल कर दिखाई उसकी पूरी फिल्म लोग देखना चाहते हैं लेकिन सवाल ये है कि उप्र का वर्तमान नेतृत्त्व क्या इसके लिए राजी होगा?
दूसरा सवाल उससे भी बड़ा और पेचीदा है कि यदि केंद्रीय नेतृत्त्व ए.के. शर्मा को उप्र में बड़ी और महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी सौपने का मन बना चुका है तो क्या योगी आदित्यनाथ केंद्रीय नेतृत्त्व के इस फैसले के खिलाफ जा रहे हैं?
राजनैतिक हलकों में यह चर्चा भी है कि एक प्रशासनिक अधिकारी रहा व्यक्ति राजनीति में क्या कर पाएगा। तो ऐसे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि परदे के पीछे सारा दिमाग प्रशासनिक अधिकारी का ही होता है और यही प्रशासनिक अधिकारी जब राजनैतिक पद पाकर खुले रूप से जनता की सेवा करने उतरता है तो कमाल करता है जिसका उदहारण ए.के. शर्मा ने कोविड नियंत्रण के जिम्मेदारी संभाल कर दिया।
अब योगी आदित्यनाथ ए.के. शर्मा को लेकर केन्द्रीय नेतृत्त्व के फैसले को अनदेखा करते हैं या उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपते हैं यह तो भविष्य बताएगा लेकिन इतना तो साफ़ दिख रहा है कि फ़िलहाल प्रदेश नेतृत्त्व और भाजपा के शीर्ष नेतृत्त्व में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
कहते हैं राजनीति में कब क्या हो जाय कहा नहीं जा सकता। उत्तराखंड का उदहारण हमारे सामने है। एक दिन पहले तक मुख्यमंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर रातोरात तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया, जबकि वहां कोई बड़ी नाराजगी जनता के बीच में तो नहीं थी।
जबकि उप्र की स्थिति तो यह है कि कोरोना की दूसरी लहर के कहर को रोक पाने में जो कमी नजर आई उसके लिए जनता पूरी तरह से मुख्यमंत्री और उनके इर्दगिर्द जमे अधिकारियों को जिम्मेदार मानती है।
इसके अलावा पार्टी व सरकार में भी योगी आदित्यनाथ व उनकी कार्यशैली को लेकर असंतोष है जिसका कई बार खुले तौर पर इजहार हो चुका है। योगी आदित्यनाथ के बारे में यह भी कहा जाता है कि वो विधायकों व मंत्रियों (कुछ मंत्रियों को छोड़कर) से ज्यादा अधिकारियों की सुनते हैं और उन्ही पर विश्वास भी करते हैं।
लगभग 200 भाजपा विधायकों ने अपनी ही सरकार के खिलाफ जिस तरह विधानसभा में धरना दिया वह योगी आदित्यनाथ के खिलाफ बढ़ते असंतोष का सूचक है।
इसी तरह सरकार में उप-मुख्यमंत्री व प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य की उपेक्षा को लेकर भी योगी आदित्यनाथ पर सवाल उठते रहे हैं। यह तो सर्वविदित है 2017 में जब भाजपा ने 325 विधायकों का प्रचंड बहुमत हासिल किया उस समय प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ही थे और सीएम पद के दावेदार भी लेकिन राजनीति ने करवट बदली और योगी आदित्यनाथ सीएम बन गए।
केशव प्रसाद मौर्य को डिप्टी सीएम पद से ही संतोष करना पड़ा लेकिन सत्य तो यह भी है बीते चार सालों में केशव प्रसाद मौर्य को वो तवज्जो नहीं मिली जो उन्हें मिलनी चाहिए जबकि उनकी गिनती प्रदेश के पिछड़े वर्ग के कद्दावर नेताओं में होती है।
तो क्या उत्तरप्रदेश भी नेतृत्त्व परिवर्तन की तरफ बढ़ रहा है? इस सवाल का जवाब जल्द ही मिलने की उम्मीद है।