अद्भुत थी भगवान शिव और माता पार्वती की बारात, संसार के समस्त प्राणी हुए थे सम्मिलित
हमारे पौराणिक ग्रंथों में अनेकानेक देवी-देवताओं के विवाह का वर्णन है किन्तु जैसी भव्य बारात का वर्णन वर्णन भगवान शंकर और माता पार्वती के विवाह के सन्दर्भ में दिया गया है उसकी कोई तुलना नहीं है।इस बारात के विषय में कहा जाता है कि इसमें संसार के सभी प्राणी सम्मलित हुए थे और उनके भार से पृथ्वी अपनी धुरी पर झुक गयी थी। उसे संतुलित करने हेतु भगवान शंकर ने महर्षि अगस्त्य को अपने आशीर्वाद और उनके समस्त पुण्य फल के साथ पृथ्वी के दूसरे छोर पर भेजा और तब जाकर पृथ्वी का संतुलन सही हुआ।
माता पार्वती का भगवान शंकर को तपस्या कर विवाह के लिए मना लेना भी एक असंभव कार्य था क्यूंकि माता सती के देहावसान के पश्चात महादेव वैरागी हो गए थे। जब वे विवाह हेतु मान गए तो उनके विवाह की तैयारी में त्रिलोक जुट गया। भोलेनाथ ही एक मात्र ऐसे हैं जो देव, दैत्य, मानव, दानव, असुर, राक्षस, गन्धर्व, नाग, किन्नर, यक्ष, भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, यातुधान, ब्रह्मराक्षस और इसके अतिरिक्त भी समस्त जातियों के लिए पूज्य हैं। इसके अतिरिक्त वे पशुपतिनाथ हैं इसी कारण समस्त पशु जाति भी उनके विवाह में सम्मलित होने को तत्पर थी। इनमें से कई तो ऐसे थे जो एक दूसरे के घोर शत्रु थे किन्तु देवाधिदेव के विवाह में सम्मलित होने के लिए उन्होंने सारे मतभेद भुला दिए।
उधर माता पार्वती भी परमपिता ब्रह्मा के पुत्र पर्वतराज हिमालय की पुत्री थी। ये एक प्रकार से शाही विवाह था और इसी कारण सभी प्रकार की व्यवस्था का ध्यान रखा गया था। उधर सभी लोग सबसे पहले अपने पूरे ठाठ-बाट के साथ कैलाश पर उपस्थित हुए। शिवगण तल्लीनता से महादेव का श्रृंगार करने में व्यस्त थे। जटा-जूट, नाग, रुद्राक्ष, भस्म, मुण्डमाला इत्यादि से उनका श्रृंगार किया गया। समस्त अप्सराएं कैलाश पर नृत्य कर रही थी और महादेव का अद्भुत रूप देख कर कह रही थी कि उनके योग्य कन्या तो त्रिलोक में नहीं मिलेगी।
बारात हो और मित्र वर से परिहास ना करे ऐसा भला हो सकता है? भगवान विष्णु ने महादेव का वो रूप देख कर हँसते हुए कहा – “ऐसे अद्वितीय वर के लिए तो ये बारात योग्य नहीं है। अवश्य ही कन्या के घर हमें लज्जित होना पड़ेगा।” श्रीहरि की ऐसी हंसी-ठिठोली सुन कर महादेव ने प्रसन्न होते हुए नंदी से सही को एकत्रित करने को कहा। तब सब लोगों ने एक साथ ऐसा कोलाहल किया जिसकी कोई तुलना नहीं थी। इस प्रकार महादेव की वो बारात कैलाश से निकल कर हिमालय की ओर बढ़ने लगी। गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में इस बारात का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। वे लिखते हैं –
कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥
अर्थात: उस बारात में कोई बिना मुख का था, किसी के बहुत से मुख थे। कोई बिना हाथ-पैर का था तो किसी के कई हाथ-पैर थे। किसी के बहुत आँखें थी तो किसी के एक भी आँख नहीं थी। कोई बहुत मोटा-ताजा था, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला था।
उस विवाह में जैसा अद्भुत वर था, बारात भी वैसी ही अद्भुत थी। सभी मार्ग में भांति-भांति के कौतुक करते हुए जा रहे थे। भगवान भूतेश्वर नंदी पर सवार और अपने गणों – भृंगी, वीरभद्र, भैरव, क्षेत्रपाल, गणेश्वर शंखकर्ण, कंकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुण्डक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रसथ आदि से घिरे हुए अत्यंत शोभामान दिखाई दे रहे थे। स्वयं चंडीदेवी महादेव की बहन बनकर आई थी। उनका रूप भी अद्भुत था। उन्होंने सर्पों का आभूषण धारण किया था, प्रेत पर सवार थी एवं सर पर स्वर्ण कलश उठाया हुआ था।
बारात के मध्य में भगवान विष्णु एवं भगवान ब्रह्मा क्रमशः गरुड़ एवं हंस पर सारी व्यवस्था का निरिक्षण करते हुए चल रहे थे। माता गायत्री, सावित्री, सरस्वती, लक्ष्मी और अन्य पवित्र माताएं उस बारात की शोभा बढ़ा रही थी। सप्तर्षियों सहित सभी ऋषि-मुनि स्वस्ति-गान करते हुए चल रहे थे। देवराज इंद्र समस्त देवताओं से एवं कुबेर यक्षों एवं गंधर्वों से घिरे चल रहे थे। श्रेष्ठ मनुष्य इन सभी के दर्शन कर स्वयं को धन्य मानते हुए आगे बढ़ रहे थे।
भगवान शिव को तनिक पीछे छोड़ कर भगवान विष्णु और परमपिता ब्रह्मा शेष देवताओं, यक्षों, गंधर्वों इत्यादि को लेकर आगे बढे। हिमालय राज के द्वार पर अनेकानेक सुन्दर स्त्रियों के बीच माता पार्वती की माता मैनावती ने सबका स्वागत किया। श्रीहरि, ब्रह्माजी और सभी देवताओं का सुन्दर रूप देख कर मैनावती अत्यंत प्रसन्न हुए एवं व्यग्रता से भगवान शिव के आने की प्रतीक्षा करने लगी। शिवगणों, भूत, प्रेतों से घिरे अद्भुत वेशधारी महादेव जब वहाँ पहुँचे तो उनका वो भयानक रूप देख कर नगरवासी डर कर पीछे हटने लगे। मैनावती तो मारे भय के अचेत ही हो गयी। वहाँ उपस्थित श्रेष्ट जन और स्वयं हिमालय राज भी महादेव की लीला ना समझ कर उनका वो रूप देख कर दुखी हो गए।
हिमालय राज ने दुखी मन से उन अद्भुत वेषधारी शिव को द्वार के अंदर आमंत्रित किया किन्तु तभी मैनावती की तंद्रा टूटी और उन्होंने उस विवाह से मना कर दिया। अपनी पुत्री पार्वती को अपने अंक में भर कर वे रोते हुए बोली – “हे पुत्री! क्या इस भयानक वेषधारी वर हेतु ही तुमने इतनी भीषण तपस्या की थी? अपनी ऐसी सुन्दर और कोमल पुत्री, जिसकी संसार में कोई तुलना नहीं है, को मैं कदापि इस औघड़ के हाथों नहीं सौंपूंगी। पता नहीं नारद को मुझसे कैसा बैर था जो तुम्हारा लगन इस भभूतधारी के साथ लगवा दिया। चाहे मुझे मेरे प्राण ही क्यों ना त्यागने पड़े किन्तु मैं ये विवाह नहीं होने दूंगी।” इस प्रकार मैनावती अपनी पुत्री को पकडे विलाप करने लगी।
तब माता पार्वती ने मैनावती को समझाते हुए कहा – “हे माता! तुम महादेव की इस लीला को नहीं जानती। वैसे भी मनुष्य के प्रारब्ध में जो होता है उसे वही प्राप्त होता है।” तब हिमालय राज ने भी अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा – “प्रिये! तुम कदाचित अपनी ही पुत्री को नहीं पहचान रही हो। पूर्व काल में श्रीराम की पत्नी सीता का रूप धरने के कारण जिस जगतजननी सती को महादेव ने त्याग दिया था, वही इस जन्म में तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्मी है । इसका सम्बन्ध तो महादेव से पहले से ही जुड़ चुका हैं, आज तो बस विवाह की औपचारिकता भर है।”
अपने पुत्री और पति के ऐसे वचन सुन कर मैनावती ने अंततः वर का स्वागत किया। तब अपनी सास को दुखी देख कर महादेव ने कोमल स्वर में उनकी इच्छा पूछी। तब मैनावती ने उनसे उस औघड़ वेश को छोड़ कर राजकुमारों वाला वेश धरने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान शिव ने नारायण से स्वयं का श्रृंगार करने को कहा। तब भगवान विष्णु और देवताओं ने महादेव को जनवासे में ले जा कर उनका श्रृंगार किया और जब वे वेदी पर आये तो उनका रूप करोड़ों कामदेवों को रूप को भी लज्जित कर रहा था। उस समय तक जो कोई देवी पार्वती का अद्भुत रूप देख कर आश्चर्य कर रहे थे, वे महादेव के इस अतिसुन्दर रूप को देख कर मंत्रमुग्ध हो गए।
विवाह से पूर्व वर-वधु पक्ष द्वारा अपने कुल का परिचय देने की रस्म आयी। तब पर्वतराज हिमालय ने गर्व पूर्वक अपने उत्तम कुल का परिचय देते हुए कहा – “ये समस्त जगत जिन महाब्रह्मा से उत्पन्न हुआ है, मैं उनका पुत्र हूँ। सप्तर्षियों सहित उनके सभी मानस पुत्र, प्रजा का पालन करने वाले महाराज मनु, देवर्षि नारद इत्यादि मेरे भ्राता हैं। महापर्वत मेरु की पुत्री मैनावती कन्या की माता है और संसार के सभी पर्वत और वनस्पति उनके सम्बन्धी हैं।” ये कह कर हिमवान ने वर से अपने कुल का परिचय देने को कहा।
ये सुनकर सभी ने महादेव की ओर देखा किन्तु वे मौन बैठे रहे। तब हिमालय ने श्रीहरि एवं अपने पिता ब्रह्माजी से वर के कुल का परिचय देने को कहा किन्तु वे दोनों भी मौन बैठे रहे। तब सभी को दुविधा में देख कर देवर्षि नारद ने अपनी वीणा बजाना आरम्भ कर दिया। ये देख कर मैनावती ने उनसे पूछा कि इतनी गंभीर बात पर वे अपनी वीणा की ध्वनि क्यों कर रहे हैं? तब नारद ने कहा – “हे देवी! मैं आपको महादेव की उत्पत्ति के विषय में संकेत दे रहा हूँ। ये स्वयंभू हैं इसीलिए ना इनके कोई पिता हैं, ना माता और ना ही कोई कुल अथवा गोत्र है। जब संसार अस्तित्व में आया तो जो सबसे पहली चीज उत्पन्न हुई वो थी ध्वनि। वो आदि-नाद भी इन्ही निर्विकार महारुद्र द्वारा ही अस्तित्व में आया। इसी कारण में अपने वीणा की तान दे रहा हूँ।”
ये सुनकर हिमालय और मैनावती महादेव के चरणों में झुक गए एवं विधि पूर्वक देवी पार्वती का विवाह भोलेनाथ से किया गया। स्वयं ब्रह्माजी ने विवाह संपन्न करवाया। तत्पश्चात मैनावती ने माता पार्वती को श्रेष्ठ सती के कर्तव्यों का उपदेश दिया और फिर अनेकानेक उपहार देकर पर्वत राज ने अपनी पुत्री को विदा किया। जो कोई भी भगवान शिव और माता पारवती के विवाह की इस पावन कथा को सुनता है उसके सारे कष्टों का नाश हो जाता है। जिस किसी का भी विवाह होने वाला हो उसे ये कथा अवश्य सुननी चाहिए। यदि किसी कन्या अथवा वर के विवाह में विलम्ब हो रहा हो तो इस कथा को सुनने से शीघ्र ही उन्हें मनचाहे वर/वधु की प्राप्ति होती हैं। ॐ नमः शिवाय।।🌾