क्या ‘एक देश, एक चुनाव’ है समय की आवश्यकता? जानिए क्या हैं इसके लाभ और क्या हैं नुकसान
किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। स्वस्थ एवं निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र के लिए आवश्यक होते हैं। भारत में हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। इस कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है। इसी कारण लंबे समय से लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के मसले पर बहस चल रही है।
एक देश, एक चुनाव लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने की एक व्यवस्था है। पंचायत और नगरपालिकाओं के चुनावों को इसमें शामिल नहीं किया जाता। इस मसले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। कुछ राजनीतिक दलों ने इस विचार से सहमति जताई है जबकि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। उनका कहना है कि यह विचार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है।
एक देश एक चुनाव कोई नवीन परंपरा नहीं है। 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएँ विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं। 1971 के लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। उसके बाद किसी राजनीतिक दल ने इसे फिर से लागू करने के बारे में नहीं सोचा।
एक देश एक चुनाव की जरूरत क्यों है? देश में इस प्रक्रिया को फिर से लाने के पक्ष में क्या तर्क हैं और इसके विरोध में क्या तर्क हैं इसे जानना ज़रूरी है। इस लेख में हम इसी का प्रयास करेंगे।
एक देश एक चुनाव के पक्ष में क्या तर्क हैं:-
1.पैसों की बर्बादी से बचाव- एक देश-एक चुनाव लागू होने से देश में हर साल होने वाले चुनावों पर खर्च होने वाली भारी धनराशि बच जाएगी। 1951-1952 के लोकसभा चुनाव में जहां 11 करोड़ रुपये खर्च हुए थे जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपये की भारी-भरकम धनराशि खर्च हुई थी। इससे देश के संसाधन बचेंगे और विकास की गति धीमी नहीं पड़ेगी।
2.बार-बार चुनाव कराने की परेशानी से बचाव- भारत जैसे विशाल देश में हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। इन चुनावों को कराने में पूरी स्टेट मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल होता है लेकिन यह बिल लागू होने से चुनावों की बार-बार की तैयारी से छुटकारा मिल जाएगा। पूरे देश में चुनावों के लिए एक ही वोटर लिस्ट होगी।
3.विकास के कार्य अबाध चलते रहेंगे- बार-बार होने वाले चुनावों की वजह से आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है। इससे सरकार समय पर कोई नीतिगत फैसला नहीं ले पाती या फिर विभिन्न योजनाओं को लागू करने में दिक्कतें आती हैं। इससे विकास कार्य प्रभावित होते हैं।
4.काले धन के इस्तेमाल पर लगेगी रोक- इससे कालेधन और भ्रष्टाचार पर रोक लगने में मदद मिलेगी। चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों पर काले धन के इस्तेमाल का आरोप लगता रहा है। प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है, किन्तु राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है।यह बिल लागू होने से इस समस्या से बहुत हद तक छुटकारा मिलेगा।
5.सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों का बचेगा समय- सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे उनका समय तो बचेगा ही और वे अपने कर्त्तव्यों का पालन भी सही तरीके से कर पायेंगे। हमारे यहाँ चुनाव कराने के लिये शिक्षकों और सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं, जिससे उनका कार्य प्रभावित होता है।
एक देश एक चुनाव के विपक्ष में क्या तर्क हैं:-
1.सत्तारूढ़ दल को सदैव लाभ की आशंका- इससे केंद्र में बैठी पार्टी को एकतरफा लाभ हो सकता है। अगर देश में सत्ता में बैठी किसी पार्टी का सकारात्मक माहौल बना हुआ है तो इससे पूरे देश में एक ही पार्टी का शासन हो सकता है, जो कि लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है।
2.चुनाव परिणामों में होगी देरी- पूरे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे तो इससे पूरी-पूरी संभावना होगी कि चुनावी नतीजों में देरी हो सकती है। नतीजों में देरी से देश में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी, जिसका नुकसान आम लोगों को भी झेलना पड़ सकता है।
3.राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों में मतभेद बढ़ेगा- इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच मतभेद और ज्यादा बढ़ सकता है। एक देश-एक चुनाव से राष्ट्रीय पार्टियों को फायदा पहुंच सकता है जबकि छोटे दलों को नुकसान होने की संभावना है।
4.संवैधानिक और राजनीतिक चुनौतियां बढ़ेंगी- इस व्यवस्था लागू करने के लिए संवैधानिक और राजनीतिक चुनौतियां भी सामने आयेंगी। किसी भी विधानसभा या लोकसभा का कार्यकाल एक भी दिन बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन करने होगा या फिर राष्ट्रपति शासन लगाना होगा। इसके अलावा जिन राज्यों में सरकार बीच कार्यकाल में ही भंग हो जाएगी वहां संवैधानिक इंतजाम कैसे होंगे? इसके अलावा विधानसभा का कार्यकाल घटाने या बढ़ाने की सर्वसम्मति कैसे बनेगी?
5.संघीय ढांचे पर प्रहार- यह व्यवस्था देश के संघीय ढाँचे के विपरीत होगी और संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक कदम होगा। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर कुछ विधानसभाओं के मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जायेगा जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है।
6.विशाल जनसंख्या- भारत जनसंख्या के मामले में विश्व का सबसे बड़ा देश है। बड़ी आबादी और आधारभूत संरचना के अभाव में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराना तार्किक प्रतीत नहीं होता।
इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत हर समय चुनावी चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है। एक देश एक चुनाव की व्यवस्था इस चक्रव्यूह को तोड़ सकती है किन्तु राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जा रहा है उससे लगता है कि इसे निकट भविष्य में लागू कर पाना संभव नहीं है। अगर देश में ‘एक देश एक कर’ यानी GST लागू हो सकता है तो एक देश एक चुनाव की व्यवस्था क्यों नहीं लागू हो सकती? अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल तार्किक ढंग से इस मुद्दे पर बहस करें ताकि इसे सही तरीके से लागू किया जा सके।