प्रभु श्रीराम ने शबरी के जूठे फल खाए, ऐसी कौन सी विशेषता थी शबरी के फलों में, पढ़ें रोचक आलेख
शबरी के फलों की मिठास का वर्णन
भक्ति-साहित्य बार-बार
में
आता है। कुछ भक्तों ने तो यहां तक कह दिया कि प्रभु ने शबरी के जूठे फल खाए। यह भी भक्तों की एक भावना है। इसे मर्यादा और विवाद का विषय न बनाकर उसके पीछे जो भावनात्मक संकेत हैं, उस दृष्टि से विचार करना चाहिए पर यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने आती है कि भगवान राम को इन फलों में जैसा स्वाद मिला, वैसा स्वाद न तो पहले कहीं मिला था और न बाद में ही कहीं मिला।
भक्ति-साहित्य बार-बार
में
आता है। कुछ भक्तों ने तो यहां तक कह दिया कि प्रभु ने शबरी के जूठे फल खाए। यह भी भक्तों की एक भावना है। इसे मर्यादा और विवाद का विषय न बनाकर उसके पीछे जो भावनात्मक संकेत हैं, उस दृष्टि से विचार करना चाहिए पर यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने आती है कि भगवान राम को इन फलों में जैसा स्वाद मिला, वैसा स्वाद न तो पहले कहीं मिला था और न बाद में ही कहीं मिला।
श्रीराम अपनी इस वनयात्रा में मुनियों के आश्रम में भी गए। महर्षि भरद्वाज, ब्रह्मर्षि वाल्मीकि आदि के आश्रम में भी आदर और स्नेहपूर्वक उन्हें कंद, मूल, फल अर्पित किए गए। उन महापुरुषों ने जो फल अर्पित किए वे भी दिव्य ही रहे होंगे। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से यह पूछा जा सकता है कि ‘शबरी के फलों में ऐसी कौन सी विशेषता थी कि प्रभु ने उनमें जिस स्वाद का अनुभव किया, अन्यत्र नहीं कर पाए?’
गोस्वामी जी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, उसके अर्थ और संकेत पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। गोस्वामी, इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र अर्पित कंद, मूल, फल के लिए नहीं करते।
वे कहते हैं- कंद, मूल, फल सुरस अति दिए राम कहुं आनि।
– अर्थात शबरी के फलों में ‘रस’ नहीं ‘सुरस’ है। और केवल सुरस ही नहीं ‘अति सुरस’ है।
इस ‘अति सुरस’ शब्द के द्वारा भक्ति की जो अद्भुत व्याख्या की गई है, उसके बहुत से संकेत सूत्रों का वर्णन काव्य में किया गया है और उनमें बड़ा आनंद है। पहले ‘रस’ पर विचार करें। रस की पिपासा सारे जीवों में समान रूप से विद्यमान है, पर उन रसों में भिन्नता है। एक रस, जिसका आनंद व्यक्ति अपने जीवन में सर्वदा लेने का अभ्यास करता है वह है-‘ विषय रस’।
गोस्वामी तुलसीदास जी से प्रश्न किया गया कि आपने रामकथा को इतना सरल बना दिया, पर इसमें इतने लोग एकत्र क्यों नहीं होते जितने होने चाहिए? श्रोता भी कई प्रकार के होते हैं उनमें अलग-अलग रुचि और अलग-अलग प्रकार के रसों की कामनाएं होती हैं। गोस्वामीजी ने इसका उत्तर देने के लिए जिस शब्दावली का प्रयोग किया उसमें थोड़ी सी कठोरता दिखाई देती है। वे कहते हैं कि ‘मानस’ रूपी मानसरोवर में कुछ ऐसी वस्तुओं का अभाव है जिन्हें कई श्रोता पाना चाहते हैं।
तेहि कारन आवत हियं हारे, कामी काक बलाक विचारे
– कौए और बगुले जैसी वृत्ति वाले जो रामकथा में विषय रस पाना चाहते हैं, नहीं आ सकते।
इसका अर्थ किसी की आलोचना के रूप में न लेकर इस रूप में लेना चाहिए कि ‘कथा में भी विषय रस पाने की लालसा से जाना, ठीक नहीं है।’ इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है कि हम किस रस को पाने के लिए भगवत कथा में जाते हैं? इंद्रियों में रस की पिपासा है और विषयों में भी रस हैं, पर यदि कोई व्यक्ति इस विषय रस की खोज में रामकथा में जाता है तो उसे निराशा ही होगी। अब यदि ऐसे व्यक्ति को रामकथा नीरस लगे तो यह आश्चर्य की बात नहीं है।
रामायण के चारों वक्ताओं में एक वक्ता हैं कागभुशुण्डि जी, जो एक काग (कौआ) हैं। सभी जानते हैं कि पक्षियों में सबसे कर्कश स्वर वाला पक्षी कौआ ही होता है। कोयल का गायन किसको आकृष्ट नहीं करता? पर कौवे का कर्कश स्वर कोई नहीं सुनना चाहता। मानस में जो कसौटी है वह तो यही बताती है कि जिसे कौवे की कथा में भी आनंद आए वही कथा रसिक है, पर जिसे कथा सुनते समय कौवे के स्थान पर कोयल की खोज हो, वह कथा रसिक न होकर स्वर की मधुरता का प्रेमी है।
तुलसीदास जी जब कागभुशुण्डि जी का वक्ता के रूप में वर्णन करते हैं तो एक अद्भुत बात कहते हैं। कागभुशुण्डि जी हैं तो काग ही, इसलिए उनके कंठ में से निकलने वाले स्वर में कर्कशता तो होगी ही, पर जब कागभुशुण्डि जी वक्ता के आसन से कथा सुनाते हैं तो गोस्वामी तुलसीदास जी एक और शब्द जोड़ते हुए कहते हैं कि- ‘मधुर बचन तब बोलेउ कागा।’