जानिए कौन है ‘आंग सान सू की’ जिसने मानवाधिकारों के लिए उठाई आवाज, जानें इनकी पूरी कहानी…

भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में बड़ा राजनीतिक उलटफेर देखने को मिला। यहां देश की सबसे बड़ी नेता आंग सान सू की को हिरासत में ले लिया गया है और देश अगले एक साल के लिए सेना के नियंत्रण में चला गया है। कभी मानवाधिकारों की पैरोकार मानी जाने वाली सू की को साल 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब उनसे यह पुरस्कार वापस लिए जाने की मांग उठने लगी। यह पहली बार नहीं जब सू की को नजरबंद किया जा रहा हो। इससे पहले भी उन्हें छोटी-छोटी अवधि के लिए कई बार हिरासत में लिया जा चुका है।


आंग सान सू की का जन्म म्यांमार के रंगून में हुआ। वह जब दो साल की थीं तब उनके पिता की राजनीतिक तरह से हत्या कर दी गई थी। सू की ने 1960 तक बर्मा में पढ़ाई की लेकिन इसके बाद वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने गईं, जहां उनकी मुलाकात ब्रिटिश छात्र माइकल ऐरिस से हुई। दोनों ने बाद में शादी की और सू की दो बच्चों की मां बनीं। हालांकि, 1988 में वह एक बार फिर अपनी बीमार मां की देखरेख के लिए म्यांमार लौटीं जहां सेना का अत्याचार जारी था। इसके बाद सू की ने देश में मानवाधिकार हनन के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।

ऐक्टिविजम और हाउस अरेस्ट
जुलाई 1989 में म्यांमार की सैन्य सरकार ने सू की को रंगून में नजरबंद कर दिया। सेना ने सू की को यह प्रस्ताव दिया कि अगर वह देश छोड़ दें तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। सू की ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि जब तक चुनी हुई सरकार न आए और राजनीतिक बंदियों को रिहा नहीं किया जाता तब तक वह कहीं नहीं जाएंगी। साल 1990 में हुए चुनावों में सू की पार्टी नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने संसद की 80 फीसदी सीटों पर कब्जा किया लेकिन सेना ने चुनाव के नतीजों को दरकिनार किया। आधिकारिक तौर पर साल 2010 में सेना ने इस चुनाव के नतीजों को रद्द किया था। सू की को नजरबंद ही रखा गया। हालांकि, इस बीच साल 1991 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किए जाने घोषणा हुई लेकिन सू की के स्थान पर उनके बेटे ऐलेग्जेंडर ऐरिस ने यह पुरस्कार लिया था।

1995 में हुई थीं रिहा
सू की को जुलाई 1995 में रिहा किया गया लेकिन उनपर पाबंदियां भी लगाई गईं। वह रंगून से बाहर नहीं जा सकती थीं। साल 1999 में उनके पति माइकल ऐरिस की इंग्लैंड में मृत्यु हो गई था। म्यांमार सरकार ने ऐरिस की सू ची से मिलने की अंतिम इच्छा को ठुकरा दिया था। सरकार के कहना था कि सू ची ऐरिस से मिलने चली जाएं। लेकिन सू ची नहीं गईं वे घर पर ही रहीं। सू ची को इस बात का डर था कि अगर वे चली गईं तब उनको वापिस म्यांमार में आने नहीं दिया जाएगा। रंगून से बाहर जाने के प्रतिबंध का पालन न करने को लेकर सैन्य सरकार ने सितंबर 2000 में एक बार फिर सू की को नजरबंद कर दिया और वह मई 2002 तक नजरबंद रहीं। म्यांमार में बढ़ते विरोध को देखते हुए साल 2003 में सू की को फिर से नजरबंद किया गया। हालांकि, अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उनकी रिहाई की मांग उठने लगी थीं। साल 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा की थी कि सू की को हिरासत में रखना म्यांमार के अपने कानून के ही खिलाफ बताया। साल 2011 में सू की पर लगी पाबंदियों में कुछ ढील दी गई और वह अब कुछ लोगों से मिल सकती थीं। हालांकि, यह ढील धीरे-धीरे और बढ़ाई गई और सू की कहीं यात्रा भी कर सकती थीं।

साल 2012 में की थी चुनाव लड़ने की घोषणा
सू की ने जनवरी 2012 में चुनाव लड़ने का ऐलान किया था। अप्रैल में हुए चुनावों में उन्होंने आसानी से जीत हासिल की और 2 मई को उन्होंने शपथ ली। मई 2012 में सू की थाइलैंड की यात्रा पर गई जो कि साल 1988 के बाद उनकी पहली विदेश यात्रा थी। म्यांमार के संविधान के मुताबिक, अगर किसी का पति या पत्नी और बच्चे विदेशी नागरिक हैं तो वह चुनाव नहीं लड़ सकते। इसकी वजह से वह राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ सकीं। हालांकि उनकी पार्टी एनएलडी ने चुनावों में जीत दर्ज की। सू की के भरोसेमंद तिन क्यॉ को मार्च 2016 में राष्ट्रपति बनाया गया।

राष्ट्रपति से ज्यादा शक्तियां मिलीं
सरकार बनने के शुरुआती दौर में सू की ने ऊर्जा, शिक्षा, विदेश और राष्ट्रपति के मंत्री का कार्यभार संभाला। हालांकि, कुछ समय बाद ही उन्होंने दो मंत्रालय छोड़ दिए। इसके बाद म्यांमार के कानून में बदलाव करके सू की को स्टेट काउंसलर बनाया गया। यह पद प्रधानमंत्री के जैसा था और इस पद पर बैठे व्यक्ति को राष्ट्रपति से ज्यादा ताकत दी गई। सू की के लिए नया पद बनाना सेना को रास नहीं आया और उसने इसका विरोध किया।

रोहिंग्याओं के साथ बर्बरता ने छवि को पहुंचाया नुकसान
मानवाधिकारों की पैरोकार सू की जब खुद सत्ता में आईं तो देश के रखाइन राज्य में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ सेना की बर्बरता जारी रही। साल 2016 से 2017 के बीच रोहिंग्या मुस्लिमों ने सेना पर हमले किए जिसके बाद रोहिंग्याओं के खिलाफ सेना ने व्यापक अभियान चलाया और नतीजतन लाखों-करोड़ों रोहिंग्या देश से भागने लगे। इस मुद्दे पर सू की ने चुप्पी साधे रखी जिसकी वजह से कई संगठनों ने उन्हें दिए पुरस्कार तक वापस लेने की घोषणा कर दी। उनसे नोबेल पुरस्कार वापस लिए जाने की भी मांग होने लगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

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