हरिद्वार कुंभ 2021ः कल्पवास के दौरान मनुष्य रूप में देवता करते हैं हरि कीर्तन
पद्म पुराण में महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की पूर्ण व्यवस्था का वर्णन किया है. उनके अनुसार कल्पवासी को इक्कीस नियमों का पालन करना होता है-सत्यवचन, अहिंसा, इन्द्रियों का शमन, सभी प्राणियों पर दयाभाव, ब्रह्मचर्य का पालन, व्यसनों का त्याग, सूर्योदय से पूर्व शैय्या-त्याग, नित्य तीन बार सुरसरि-स्नान, त्रिकालसंध्या, पितरों का पिण्डदान, यथा-शक्ति दान, अन्तर्मुखी जप, सत्संग, क्षेत्र संन्यास अर्थात संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना, परनिन्दा त्याग, साधु सन्यासियों की सेवा, जप एवं संकीर्तन, एक समय भोजन, भूमि शयन, अग्नि सेवन न कराना. जिनमें से ब्रह्मचर्य, व्रत एवं उपवास, देव पूजन, सत्संग, दान का विशेष महत्व है.
क्षीरसागर मंथन के उपरांत अमृत कलश निकलने पर देव और दानवों में अमृत कलश को लेकर युद्ध हुआ था. इस युद्ध के दौरान धरती पर जिन चार स्थानों हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक एवं उज्जैन पर अमृत की बूंदें टपकी उन स्थानों पर कुम्भ का आयोजन होता है.
कुंभ मेले के आयोजन के बारे में तिथियों का निर्धारण राशियों के आधार पर होता है. कुंभ मेले की तिथि और स्थान को तय करने में बृहस्पति और सूर्य ग्रह की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. ये दोनों ग्रहों की स्थितियां ही निर्धारित करती है कि देश में कहां कुंभ मेला लगना है और किस दिन इसकी शुरुआत होगी. बृहस्पति और सूर्य के राशियों में प्रवेश करने से ही मेले का स्थान और तिथि निर्धारित होती है.
ब्रह्मलीन स्वामी सदानंद परमहंस कहते थे कि मेला से ज्यादा आध्यात्मिक महत्व उससे पूर्व कुम्भ के कल्पवास का होता है. कुम्भ के कल्पवास नगरी में पूरे देश के उच्च कोटि के साधक व सिद्ध साधना के लिए पहुँचते हैं. इसका सबसे बड़ा कारण देवताओं के मनुष्य रूप में उपस्थिति होती है. कल्पवास में कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि जो साधक आपको साधारण दिख रहा है वह ऐसा ही है. हो सकता है कोई देवता छद्म वेश में साधना करने आया हो. स्वामी सदानंद जी स्वयं अध्यात्मिक स्तर पर परमहंस के पद पर सुशोभित थे, उसके बाद भी कल्पवास में साधना करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे.