दीनदयाल उपाध्याय, जिनकी मौत ने तोड़ा था ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का सपना
14 अगस्त 1947 से पहले जो स्थिति थी, भारत को उसी रूप यानी ‘एक भारत’ (United India) का सपना देखते हुए भारत के विभाजन (India Division) को पलटने की बात पुरज़ोर ढंग से 12 अप्रैल 1964 को एक बयान में कही गई थी. यह संयुक्त बयान समाजवादी नेता (Socialist Leader) राम मनोहर लोहिया (Ram Manohar Lohia) के साथ जनसंघ के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय ने जारी किया था. कहा जाता है कि इन दोनों नेताओं ने मिलकर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के बीज रखे थे. लोहिया ने जो मोर्चा खोला था, उसमें कांग्रेस के खिलाफ सभी पार्टियों को एकजुट करने के लिए उन्होंने उपाध्याय के साथ ताल मिलाई थी.
दोस्ती दोतरफा थी इसलिए 1963 में आरएसएस के कानपुर शिविर में लोहिया को नानाजी देशमुख ने न्यौता दिया था. लोहिया इस विचारधारा के नहीं थे इसलिए सवाल उठे कि वो आरएसएस के कार्यक्रम में क्यों गए तो उनका जवाब था ‘मैं संन्यासियों को गृहस्थ बनाने गया था.’ बहरहाल, लोहिया और उपाध्याय ने भारत पाकिस्तान विभाजन को रद्द किए जाने का जो बयान जारी किया, वो कांग्रेस के खिलाफ अभियान का पहला अध्याय था, लेकिन एक घटना ने गति बदल दी.
मई 1964 में जवाहरलाल नेहरू की मौत हो गई. लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने. लोहिया और उपाध्याय नए सिरे से विरोध की रूपरेखा बनाने में जुटे और फिर पाकिस्तान के साथ युद्ध का वक्त आ गया. 1965 के युद्ध को विराम देने के लिए शास्त्री जी ताशकंद में समझौते के लिए गए, लेकिन वहां संदिग्ध परिस्थितियों में उनके न रहने की खबरें आईं.
कांग्रेस ही नहीं, बल्कि देश भर में एक अस्थिरता का माहौल बन चुका था. इंदिरा गांधी के कमान संभालने के पहले तक तमाम परिस्थितियों के चलते लोहिया और उपाध्याय की मुहिम मद्धम हो गई थी. उधर, उपाध्याय संगठन खड़ा करने की कवायद में जुटे. 1967 में उपाध्याय भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष चुने गए उपाध्याय क्या, किसी को नहीं पता था कि वो सिर्फ 3 महीने ही इस पद को संभाल सकेंगे.
जनसंघ की स्थापना करने वाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने एक बार कहा था ‘मुझे दो दीनदयाल दे दो, मैं भारत की सूरत बदलकर रख दूंगा’. इसी बात को सही साबित करते हुए उपाध्याय और लोहिया के बीच जो संधि हुई थी, उसने कुछ समय के लिए भारत की तस्वीर बदलने की शुरूआत तो की थी. 1967 में पहली बार ऐसा हुआ कि भारत के राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों के बनने का सिलसिला शुरू हुआ.
चुनावी राजनीति के लिए लोहिया व उपाध्याय का गठबंधन नहीं हुआ था बल्कि कांग्रेस के खिलाफ एक मज़बूत विकल्प तैयार करने के लिए दोनों साथ थे. इसी आंदोलन के प्रोडक्ट के तौर पर समझा जाता है कि उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह, बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा, बंगाल में अजोय मुखर्जी, उड़ीसा में बीजू पटनायक, राजस्थान में कुंभराम आर्य और मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह की सरकारें कांग्रेस के लिए झटका साबित हुईं.
ये सभी पहले कांग्रेस से जुड़े थे लेकिन इन्होंने गैर कांग्रेसी सरकारें बनाईं. बलराज मधोक उस वक्त जनसंघ के अध्यक्ष हुआ करते थे. 1967 में जब बहुत कम मार्जिन से इंदिरा गांधी ने सरकार बनाई, कहा जाता था कि यह कांग्रेस का कमज़ोर समय था क्योंकि तब आप अमृतसर से कलकत्ता तक की ऐसी यात्रा कर सकते थे कि कोई कांग्रेस शासित राज्य रास्ते में न पड़े.
1967 के ही आखिर में उपाध्याय जनसंघ के प्रमुख बने और उम्मीद जागी कि यह आंदोलन गति पकड़ेगा और रंग लाएगा लेकिन दो घटनाओं ने इस ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ आंदोलन को लंबे समय तक के लिए ठंडा कर दिया. अक्टूबर 1967 में लोहिया की मौत हुई और सिर्फ तीन महीने बाद फरवरी 1968 में उपाध्याय की मौत हो गई.
10 फरवरी 1967 को उपाध्याय सियालदह एक्सप्रेस से पटना के लिए रवाना हुए थे. देर रात 2.10 बजे ट्रेन जब मुगलसराय स्टेशन पहुंची थी, तब उपाध्याय ट्रेन में नहीं पाए गए. उनकी लाश रेलवे स्टेशन से 10 मिनट की दूरी पर एक ट्रैक्शन पोल 748 के पास पाई गई. लाश के हाथ में पांच रुपये का नोट था और बाद में यही कहा गया कि चोरी के इरादे से लुटेरों ने कथित झड़प के बाद चलती ट्रेन से उपाध्याय को धक्का दे दिया.
आखिरी बार उपाध्याय को ट्रेन में जौनपुर में ज़िंदा देखा गया था. हत्या का आरोप किसी पर साबित नहीं हुआ. आरएसएस और उपाध्याय के परिवार समेत कई बार कई लोगों ने इस मामले की जांच की मांग उठाई. सीबीआई और न्यायिक जांचें हुई भी… उपाध्याय की मौत के 53 साल बाद कांग्रेस मुक्त भारत की मुहिम तो फिर ज़ोर मारती नज़र आती है, लेकिन मौत का रहस्य नहीं सुलझा.