बिहार के ये बाहुबली, इनके बाजुओं के जोर पर इठलाती है सियासत
बिहार में हर पार्टी और हर जाति के अपने अपराधी रहे हैं। पार्टी और समुदाय ने उन्हें जब-तब नायक का दर्जा दिया, उनका महिमामंडन किया। उसका खामियाजा राजनीति और राज्य को भुगतान पड़ा। दामन पर स्याह धब्बे की तरह वे राजनीति के अपराधीकरण के प्रमाण बन गए। उनमें बेशक कोई दुर्दांत नहीं रहा हो, लेकिन बाजुओं के जोर पर इलाके में उनकी धमक रही है।
अपने रसूख यानी उस धमक को बरकरार रखने के लिए वे राजनीति का चोला पहन लिए। एक दौर में तो वे राजनीति के पर्याय जैसे हो गए थे, लेकिन वक्त हर दिन बराबर नहीं होता। कुछ बाहुबलियों और उनके परिजनों को जनता ने खुद मैदान में धूल चटा दी तो कुछ सांसद सलाखों के पीछे अपने किए-कराए की सजा काटने पहुंचा दिए गए।
इतिहास के पन्ने पलटिए तो जान पड़ेगा कि संसदीय राजनीति में मध्य काल में दबंगों का प्रवेश होता है, जो आज तक बदस्तूर है। अलबत्ता उनकी संख्या में कमीबेशी होती रही। इसकी भी कुछ खास वजहें रहीं, लेकिन बाहुबली हर स्थिति में अपने लिए रास्ता निकाल लिए।
बिहार की राजनीति में बाहुबली नेताओं की पैठ शुरुआती दौर में ही हो गई, लेकिन 80 के दशक से वह परवान चढऩे लगी। कई दबंग तो दहशत के दम पर सदन तक पहुंच गए। अदालत ने इंसाफ किया तो पत्नी और बच्चों को विरासत सौंप दी। राहत मिली तो अखाड़े में फिर आ धमके। ऐसे कई चेहरे हैं, जो राज्य में सियासत की अगली पटकथा के पात्र हो सकते हैं।
1984 में काली पांडेय गोपालगंज के मैदान में उतरे तो बड़े-बड़ों की सांस फूलने लगी थी। ऐसा तब जबकि काली पांडेय के साथ कोई पार्टी नहीं थी। वे निर्दलीय चुनाव लड़े और संसद पहुंच गए। उसके बाद तो जैसे सिलसिला ही चल पड़ा। शहाबुद्दीन, सूरजभान, आनंद मोहन, पप्पू यादव, प्रभुनाथ सिंह आदि-आदि।
संसद पहुंचने के लिए दलीय-निर्दलीय की सीमा नहीं रही। अब जबकि अदालत ने हस्तक्षेप किया तो भी दबंग अपनी सियासत के लिए जुगाड़ कर लिए। चुनाव मैदान में परिजनों को उतार दिए। अब देखना यह कि मतदाता क्या सलूक करते हैं!
मैदान-ए-जंग के महारथी
इस बार डॉ. सुरेंद्र यादव जहानाबाद से राजद के प्रत्याशी हैं। वे अभी विधायक हैं। उनका इतिहास बताने की जरूरत नहीं। तिहाड़ जेल के भीतर सिन धुन रहे पूर्व सांसद शहाबुद्दीन ने पत्नी हिना शहाब को सिवान के मैदान में उतार दिया है। टिकट राजद का।
मुकाबले में जदयू ने कविता सिंह को खड़ा कर दिया। अजय सिंह की पत्नी कविता अभी विधायक हैं। महाराजगंज के पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह अभी हजारीबाग की काल कोठरी में कैद हैं। अपनी विरासत का बोझ वे पुत्र पुत्र रणधीर के कंधे पर डाल गए हैं।
सूरजभान लोजपा की राजनीति करते हैं। हत्या के जुर्म में कोर्ट ने प्रतिबंधित किया तो पत्नी वीणा देवी को लोकसभा पहुंचा दिए। इस बार भाई चंदन को नवादा के मैदान में ले आए हैं।
बॉलीवुड भी जानता है काली की करामात
1984 में कांग्रेस की लहर चल रही थी। उसके बावजूद निर्दलीय काली पांडेय गोपालगंज में बाजी मार ले गए। मुख्य मुकाबले में लोकदल के नगीना राय रहे। तब काली के दबदबे का डंका बॉलीवुड तक बजने लगा था।
राजनीति और अपराध के गठजोड़ पर आधारित फिल्म प्रतिघात के खलनायक काली की भूमिका भी उन्हीं को आधार मानकर तैयार की गई थी। वैसे काली का जलवा ज्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रहा। 1984 की जीत उनकी पहली और आखिरी जीत रही। उसके बाद भी वे लगातार चार चुनाव दल बदलकर लड़ते-हारते रहे। काली अभी लोजपा में हैं।
हर दूसरे सांसद पर जघन्य अपराध के मामले दर्ज
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2004 में चुने गए 38 फीसद सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज थे। 2009 में यह संख्या 42 फीसद हो गई और 2014 में 70 फीसद। 2004 में 25 फीसद सांसदों पर जघन्य अपराध के मामले लंबित थे।
2009 में ऐसे मामलों वाले सांसदों की संख्या 14 प्रतिशत पर आ गई। उम्मीद थी कि नतीजे आगे और बेहतर होंगे, लेकिन 2014 में हर दूसरे सांसद पर जघन्य अपराध के मामले दर्ज मिले। 70 फीसद सांसद ऐसे हैं, जिन पर कोई न कोई आपराधिक मामला अदालत में विचाराधीन है।
आपराधिक छवि वाले सांसदों में बिहार आगे
बिहार के सांसदों और विधायकों के खिलाफ देश में सर्वाधिक 260 आपराधिक मामले दर्ज हैं। उसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है और केरल तीसरे पायदान पर। 2018 में केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में यह ब्योरा प्रस्तुत किया जा चुका है।
हर दल में दागी-दबंग
बिहार में चार बड़ी पार्टियां हैं। भाजपा, जदयू, राजद और कांग्रेस। इन पार्टियों में आपराधिक छवि वाले सांसदों का बोलबाला है।
भाजपा- वर्ष 2004 लोकसभा में भाजपा के 60 फीसद सांसद आपराधिक छवि वाले थे। 2009 में ऐसे सांसद 10 फीसद कम हो गए, लेकिन 2014 में यह संख्या 68 फीसद हो गई।
जदयू- 2004 में लोकसभा में जदयू के 17 फीसद सदस्यों पर आपराधिक मामले दर्ज थे। 2009 में यह संख्या 39 फीसद हो गई। 2014 में उसके 50 फीसद सांसद आपराधिक मामलों में आरोपित रहे।
राजद- आपराधिक छवि वाले सांसद राजद में सर्वाधिक हैं। 2004 में 46 फीसद से बढ़कर यह संख्या 2009 में 50 फीसद हो गई। 2014 में सीधे दोगुना। यानी कि सौ फीसद सांसदों पर आपराधिक मामले।
जरूरी नहीं कि जनता पसंद ही करे, दरकिनार भी करती है
ऐसा नहीं कि हर बार या हर बाहुबली संसद पहुंच ही जाएं। कई उदाहरण हैं, जब जनता ने उन्हें नकार दिया। वैशाली में मुन्ना शुक्ला गच्चा खा गए। उसके बाद वे पत्नी अन्नु शुक्ला को मैदान में उतारे। जनता को वे भी पसंद नहीं आईं। मुन्ना शुक्ला दो बार विधायक रह चुके हैं।
भाजपा के पूर्व विधायक अवनीश सिंह पर जदयू ने पिछले चुनाव में दांव लगाया। पूर्वी चंपारण में वे खूब जोर लगाए, लेकिन दिल्ली जाने की हसरत धरी की धरी रह गई। उसके बाद वे विधानसभा चुनाव में उतरे ही नहीं, लिहाजा पटना का रास्ता भी बंद हो गया।
बिहार से संसद पहुंचने वाले दबंग
नाम: क्षेत्र: दल: वर्ष
काली पांडेय: गोपालगंज: निर्दलीय: 1984
मो. शहाबुद्दीन: सिवान: राजद: 1996
आनंद मोहन: शिवहर: बिपीपा: 1996
राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव: पूर्णिया: राजद: 1991
प्रभुनाथ सिंह: महाराजगंज: समता पार्टी: 1998
सुरेंद्र यादव: जहानाबाद: राजद: 1998
सूरजभान सिंह: बलिया: निर्दलीय: 2004
रामा सिंह: लोजपा: वैशाली: 2014
इस बार दबंगों के दांव
– सिवान में शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब राजद से और अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह जदयू से
– नवादा में राजबल्लभ यादव की पत्नी विभा देवी राजद से
– महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह के बेटे रणधीर सिंह राजद से
– मुंगेर में अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी कांग्रेस से
– सुपौल में राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन कांग्रेस से
– शिवहर में बृजबिहारी प्रसाद की विधवा रमा देवी भाजपा से
कहा-मुख्य निर्वाचन आयुक्त बिहार ने
दबंगई या बाहुबल से मतदाताओं को डरा-धमका कर वोट लेने वालों की खैर नहीं है। मतदाताओं की हिफाजत और सुरक्षा के लिए चुनाव आयोग मुस्तैद है। स्वच्छ, पारदर्शी और भयमुक्त मतदान संपन्न कराना हमारी पहली प्राथमिकता है।
– एचआर श्रीनिवास, मुख्य निर्वाचन अधिकारी, बिहार
कहा-राज्य समन्वयक, एडीआर ने
राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद उम्मीद जगी थी, फिर भी दागी-दबंग जनप्रतिनिधि रास्ता निकालने में सफल हो गए। स्पीडी ट्रायल के खौफ से वे पत्नी, बच्चे और रिश्तेदारों को विरासत सौंप कर पर्दे के पीछे से सक्रिय हो गए हैं।
दुर्भाग्य यह कि राजनीतिक दल भी नहीं चाहते कि इस बुराई का जड़ोन्मूलन हो। यही वजह है कि चरित्रवान, गुणवान और जनता के प्रति समर्पित प्रत्याशी के बजाय जैसे भी जिताऊ उम्मीदवार ढूंढे जाते हैं। इस जिताऊ वाले शर्त में राजनीतिक दलों के लिए धनबल-बाहुबल बड़ा मायने रखता है।