य़हां जानिए- ‘कपूर’ सरनेम वालों की दुकान का नाम कैसे हो गया ‘मल्होत्रा रेस्टोरेंट’
अकबरी आलू, वेज सीक कबाब, मशरूम स्टफ कबाब, पनीर टिक्का, मूंग दाल, पंजाबी पनीर, दम आलू…नाम पढ़कर ही मुंह में आ गया न पानी। ये तो महज बानगी है। 514 ऐसे लजीज जायकों का आप लुत्फ उठा सकते हैं पहाड़गंज स्थित मलहोत्रा रेस्त्रां में। यहां इंडियन, चाइनीज और कांटिनेंटल का उम्दा मेल ही है कि दिल्ली-एनसीआर के लोग ही नहीं, विदेशी मेहमान भी इन जायकों का सुस्वाद लेने चले आते हैं। यह महज एक रेस्त्रां नहीं, इस शहर का हमसफर भी है। इसने समय के साथ शहर के बदलते मिजाज को देखा-जाना और उसे अपने मेन्यू में भी उतारा।
दुकान संचालक हरीश कपूर कहते हैं कि यह रेस्त्रां पिता बिशनदास कपूर ने खोल था। तब हमारा परिवार पाकिस्तान में रहता था। बंटवारे के दौरान पिता दिल्ली आ गए थे। 1947 में दिल्ली आने के बाद परिवार का भरण-पोषण करना बहुत मुश्किल हो गया तो पिता जी दिल्ली क्लॉथ मिल में नौकरी करने लगे, लेकिन यह काम ज्यादा दिन तक नहीं चला। उसके बाद उन्होंने मामा तीरथराम मलहोत्रा के साथ मिलकर मिठाई की दुकान खोली।
गुजर-बसर के लिए खोली थी मिठाई की दुकान
वर्तमान में जहां रेस्त्रां है पहले वहां मिठाई की दुकान खोली गई थी। हरीश कहते हैं हम कपूर हैं, लेकिन दुकान का नाम मलहोत्रा है। इसके पीछे की कहानी यह है कि हमारे मामा मलहोत्रा थे। चूंकि वे पिता से बड़े थे इसलिए उन्हीं के नाम पर दुकान का नाम रखा गया। सिर्फ मिठाई ही क्यों? के सवाल पर वे कहते हैं कि वह दौर बड़ी मुश्किलों वाला था। पाकिस्तान से आए लोग अपना गुजर बसर करने के लिए कोई न कोई धंधा पानी ढूंढ़ रहे थे। पिता जी ने मिठाई की दुकान खोल ली थी, लेकिन बाद में मिठाई की दुकान बंद कर खाने-पीने की दुकान खोली गई।
युवकों की मदद से शुरू हुआ खाने का सफर
मिठाई की दुकान से खाने की दुकान शुरू करने के पीछे भी दिलचस्प किस्सा है। हरीश कहते हैं सन् 1970 के बाद दिल्ली में बाहर से बड़ी तादात में लोग आए। ये यहां मजदूरी और नौकरी-चाकरी करते थे, लेकिन खान-पान में अंतर होने के कारण ज्यादातर लोग बीमार पड़ जाते थे। उस समय रेस्त्रां में पंजाबी चपाती मिलती थी। एक दिन, मैं अपने पिता के साथ दुकान पर खाना खा रहा था तभी तीन युवक आए। उन्होंने कहा कि लाला जी हमारी तबीयत खराब है। क्या हमें भी एक-दो दिन के लिए घर का खाना मिल सकता है? हमने तुरंत दुकान पर खिचड़ी बनाई और उन्हें दी। युवकों ने रात को फिर खाना लेने आने की बात कह चले गए। रात को दस युवक खिचड़ी लेने आए। अगले दिन सुबह तक घर के खाने की बात सुनकर आने वालों की संख्या 30 तक पहुंच चुकी थी। यह संख्या दिनों दिन बढ़ती गई। युवकों के कहने पर ही हम मूंग दाल, तवा रोटी बनाने लगे।
नॉनवेज और चाइनीज भी
पहले यहां केवल तवे की रोटी, मूंग दाल, करेला, भिंडी, गोभी आलू बनते थे। यहां की मूंग की दाल लोग ज्यादा पसंद करते थे। लेकिन 1990 के बाद इस क्षेत्र में पर्यटकों की संख्या बढ़ने लगी और उसी के साथ मेन्यू भी बदलता गया। नॉनवेज खाने वालों की बढ़ती संख्या को देखते हुए नॉनवेज को भी मेन्यू का हिस्सा बन गया। हरीश कहते हैं पहाडग़ंज में चाइनीज जायके का स्वाद सबसे पहले हमारे यहां ही लोगों ने चखा।
514 से ज्यादा जायके
आज इस रेस्त्रां के मेन्यू में 514 से ज्यादा जायके जुड़ चुके हैं। वेज राइस पुलाव, नवरत्न पुलाव, मूंग दाल, दाल मखनी, काली दाल, पनीर हांडी, पनीर भूजिया, मलाई कोफ्ता से लेकर चना मसाला, आलू गोभी, गोभी कोरमा, आलू जीरा, दम आलू, चना मसाला, मशरूम पंजाबी तक लोग चाव से खाते हैं। वहीं चाइनीज पसंद करने वाले चिक नूडल्स सूप, टोमैटो सूप, प्लेन कॉर्न सूप, वेज नूडल्स सूप, मिक्स वेज सूप, एग नूूडल्स सूप आदि का सुस्वाद लेते हैं।