भाजपा की बांहें मरोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी शिवसेना, उद्धव ठाकरे ने दिखाये तीखे तेवर
विधानसभा चुनाव में भाजपा से लगभग आधी सीटें जीतने के बावजूद शिवसेना इस बार सरकार में शामिल होने से पहले भाजपा से तगड़ी सौदेबाजी करने में कतई चूकेगी नहीं। इस बात के संकेत शिवसेना के नेता चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद से ही देने लगे हैं। इस सौदेबाजी में सरकार बनने की गुंजाइश बहुत जल्दी नजर नहीं आ रही है।
चुनाव परिणाम आने के तुरंत बाद प्रेस से बात करते हुए स्वयं शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने गुरुवार को अपने तीखे तेवर दिखा दिए थे। उद्धव ने प्रदेश के भाजपा नेताओं को लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से हुए समझौते की याद दिलाते हुए कहा था कि विधानसभा चुनाव में तो हम कम सीटों पर लड़ने को तैयार हो गए। लेकिन अब पहले तय हुए 50-50 फार्मूले के अनुसार ही पूरी पारदर्शिता के साथ सरकार बनाने की दिशा में आगे बढ़ा जाएगा। उद्धव के 50-50 फार्मूले का अर्थ ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री पद दोनों दलों के पास रखने से है। यह फार्मूला वास्तव में 1999 में भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे का दिया हुआ है, जिसपर तब स्वयं शिवसेना तैयार नहीं हुई थी, और गठबंधन की सरकार बनते-बनते रह गई थी।
दूसरा फार्मूला 1995 में बनी शिवसेना-भाजपा गठबंधन सरकार का है। जिसमें अधिक सीटें पाने वाले दल को मुख्यमंत्री और कम सीटें पानेवाले दल को उपमुख्यमंत्री पद मिला था। लेकिन तब गृहमंत्रालय जैसे विभाग सहित ग्राम विकास, सिंचाई और पीडब्ल्यूडी जैसे कई और महत्त्वपूर्ण विभाग उपमुख्यमंत्री पद पानेवाले छोटे दल के पास थे। शिवसेना 2014 का अपमान कतई भूली नहीं है। तब दोनों दलों में 25 साल से चला आ रहा गठबंधन टूट गया था। भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और बहुमत न होने के बावजूद शिवसेना को सरकार में शामिल होने का न्यौता देने के बजाय राकांपा के बाहरी समर्थन से सरकार बना ली। कुछ माह बाद शिवसेना सरकार में शामिल भी हुई तो उसे न तो उपमुख्यमंत्री पद दिया, न ही कोई महत्त्वपूर्ण मंत्रालय।
शिवसेना नेता अनंत तरे साफ कहते हैं कि पहले का बहुत बैकलॉग बाकी है। वह सब लेकर रहेंगे। भाजपा के साथ शिवसेना की सौदेबाजी सिर्फ राज्य तक सीमित नहीं रहनेवाली। अनंत तरे के अनुसार शिवसेना के 18 सांसद होने के बावजूद उसे केंद्र में सिर्फ एक मंत्रीपद दिया गया है। वह भी ऐसा, जिसका जनसामान्य से कोई खास मतलब नहीं है। शिवसेना इस बार केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों में अपना पिछला हिसाब चुकता करके रहेगी। हालांकि कांग्रेस-राकांपा जैसे दल शिवसेना को मुख्यमंत्री पद का गाजर दिखा रहे हैं। इन दोनों दलों का कहना है कि शिवसेना खुद पहल करे तो वे उसके साथ आने पर विचार कर सकते हैं। लेकिन शिवसेना के वरिष्ठ नेता कांग्रेस-राकांपा के साथ जाने के नुकसान समझ रहे हैं। इसलिए उम्मीद है कि शिवसेना रहेगी तो हिंदुत्व के बंधन के साथ ही, लेकिन पूरा मुआवजा वसूल कर।