एक ऐसे व्यक्ति की हैरान करने वाली कहानी, जो नर भी है और नारी भी
‘सारी उम्र मैं एक झूठी पहचान के साथ जीता रहा। अगर वे जान जाते कि मैं कौन हूं तो वे मेरा मजाक उड़ाते। मैं आज भी डर के साये में जी रहा हूं।’ जोश (बदला हुआ नाम) का जन्म महिला और पुरुष दोनों ही जननांग के साथ हुआ है। हालांकि उनकी परवरिश एक लड़की के रूप में हुई है।
जब वे बड़े हो रहे थे तो उन्हें मालूम नहीं था कि उनकी वजाइना के भीतर एक पेनिस भी था। स्कूल के दिनों में उन्हें स्कर्ट तो पहनी थी पर ‘लड़कियों वाली चीजों’ से उन्हें लगाव नहीं महसूस होता था। वो अकसर लड़कों के साथ खेला करते थे और सोचा करते थे कि ‘काश मैं एक लड़का’ होता, लेकिन समाज उनकी ख्वाहिशों को अपना लें, इसके लिए जोश को एक लंबी यात्रा तय करनी थी।
अयोग्य करार दिया गया…
हाई स्कूल के दिनों में जोश के शरीर का आकार बड़ा होने लगा। उनके शरीर की बनावट में एक तरह का मर्दानापन दिखने लगा। इस बदलाव ने जोश को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया जहां से जिंदगी को लेकर उनका नजरिया बदल जाने वाला था। वो उभरते हुए एथलीट थे और 100 मीटर की रेस में उन्होंने इतना अच्छा प्रदर्शन किया था कि ये एक स्कूल रिकॉर्ड बन गया था।
अपने गृह राज्य में हुई इन सभी प्रतिस्पर्धाओं में उन्होंने एक लड़की के रूप में हिस्सा लिया था। जल्द ही वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर थाईलैंड की नुमांदगी भी करने वाले थे, लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ कि उनके तमाम सपने बिखर कर रह गए। उनके खिलाफ एक शिकायत की गई और कहा गया कि वे लड़की हैं, ये साबित करें। फिर टेस्ट हुआ और इसके नतीजे से पता चला कि उनमें पुरुषों के क्रोमोजोम्स (गुणसूत्र) हैं। जोश प्रतिस्पर्धा के लिए अयोग्य करार दे दिए गए। कल तक जिस बात के लिए जश्न मनाया जा रहा था, अचानक आशंकाओं के बादल घिर आए।
दुविधा की स्थिति
जोश कहते हैं, ‘टेस्ट के रिजल्ट सुनने के बाद मुझे लगा, जैसे किसी ने मेरे पांव तले की जमीन खींच ली हो। सारी उम्र मैं एक लड़की रही, दूसरी लड़कियों की तरह मुझमें महिला जननांग भी थे। मैं कौन हूं? मैं क्या बन गई हूं? मैं कन्फ्यूज्ड और शर्मिदां थी। मैंने खुद को चार-दीवारी के भीतर कैद कर लिया।’
उनके दोस्तों ने उनका मजाक उड़ाया। आसपास के लोगों ने कहा कि जोश के पास आधा लिंग है। इसी दौरान उन्हें लगा कि वे एक महिला साथी के लिए आकर्षित हैं। जोश ने महसूस किया कि उनका लिंग उनके ही वजाइना से बाहर आना चाहता है। ‘मुझे लगा कि मेरी किस्मत बिखर कर रह गई है। मैं न तो एक औरत रह गई थी और न ही मर्द। मुझे नहीं मालूम था कि इस दुनिया में मेरी क्या जगह है। मैं खुद में सिमट कर रह गया। दोस्तों के तानों से बचने के लिए मैंने क्लास जाना बंद कर दिया था। मेरे घरवालों को मेरी परेशानियों का अंदाजा था, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। मैं पूरी तरह से टूट गया था।’
नई जिंदगी की शुरुआत
जोश ने ये फैसला किया कि वो नई जिंदगी के लिए बैंकॉक चले जाएंगे। वहां उन्हें एक नौकरी मिल गई। इस नौकरी के लिए खुद को एक लड़की बताया था। थाईलैंड में ज्यादातर लोगों के नाम के पहले शब्द से पता चलता है कि वो पुरुष है या स्त्री। जैसे हिंदी में श्री, श्रीमति या सुश्री जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है।
थाईलैंड में नाम के उपसर्ग को आधिकारिक रूप से मान्यता हासिल है और इसे कानूनी तौर पर बदलना एक जटिल काम है। इस नौकरी में जोश के सहकर्मियों ने उन्हें एक पुरुष के तौर पर देखा। जब उन्हें पता चला कि जोश ने महिला होने के नाम पर ये नौकरी ली है, लोगों ने उनसे किनारा कर लिया।
जोश के साथ हंसी-मजाक करने वाली महिला सहकर्मियों ने भी उनसे किनारा कर लिया, उन्हें इस बात का डर था कि लोग ये न कह दें कि वे समलैंगिक हैं। वो तीन महीने तक अलग-थलग रहे। फिर उन्हें एक नई नौकरी मिल गई और वहां भी वही पुरानी कहानी दोहराई गई।
‘झूठी पहचान’
शुरू में सब कुछ ठीक रहा, लेकिन कुछ ही हफ्तों में वहां भी लोगों को मेरे बारे में पता लग गया। इस बार ये वाकई बहुत डरा देने वाला था। लोगों ने मुझे दबोच कर गिरा दिया और मेरे शरीर को टटोला ताकि उन्हें पता चल सके कि मैं मर्द हूं या औरत। इस घटना से मैं एक बार फिर से बर्बाद हो गया।’
ये भयानक अनुभव अब जोश के लिए सहने लायक नहीं रह गए थे। उन्होंने फैसला किया कि नई नौकरी के लिए आवेदन करते वक्त वे ‘झूठी पहचान’ का इस्तेमाल करेंगे। उन्होंने अपने नाम से मिस का टाइटल हटाकर मिस्टर लगा लिया। सरकारी अधिकारी उनकी पहचान न करें, इससे बचने के लिए वे हर तीन महीने में नौकरी बदलने लगे।
सालों तक जोश की जिंदगी इसी तरह से ऐसे ही चलती रही। यहां उन्होंने दोस्त बनाए और उन्हीं दोस्तों में से एक लड़की भी थी, जिन्हें जोश अपनी ‘जिंदगी की मोहब्बत’ कहते हैं। ‘जब से मैंने उसे जाना, मेरी जिंदगी को नए मायने मिले। वो हमेशा मेरे साथ रही। मैं हर तीन महीने पर नौकरी बदलता रहा और वो मेरा साथ देती रही।’
जोश ने कुछ पैसे बचाए और एक छोटी सी किराने की दुकान खोल ली। वे इलेक्ट्रीशियन का काम भी करते थे ताकि थोड़े और पैसे कमा सकें। कुछ सालों तक जोश की जिंदगी आराम से चलती रही, लेकिन तभी उनकी गर्लफ्रेंड ने उन्हें छोड़ दिया। उसने अलविदा तक नहीं कहा।
जिंदगी का बुरा दौर
‘मैं स्तब्ध था। मैंने उसके साथ आखिर क्या गलत किया था? उसने अचानक मुझे क्यों छोड़ दिया? मैंने उसे खोजने की कोशिश की, लेकिन उसके परिवारवालों ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि वो कहां है। मैंने उसके नंबर पर फोन किया पर वो मौजूद नहीं था। मैंने हफ्ते भर उसे खोजा। अचानक मेरे दिल से आवाज आई कि अगर मैं अच्छी जिंदगी नहीं जी सकता तो मुझे मर जाना चाहिए।’
जोश ने अपनी जान देने का फैसला कर लिया, लेकिन इस कोशिश के दौरान उन्होंने दुर्घटनावश पास के एक एटीएम का अलार्म बजा दिया। पुलिस मौके पर पहुंच गई। जोश को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर डकैती का आरोप लगा। पुलिस ने जोश की खुदकुशी वाली कहानी पर यकीन नहीं किया। अदालत ने दोषी करार दे दिया।
उन्हें छह महीने जेल की सजा हुई। जेल में उनका मेडिकल टेस्ट कराया गया। जोश को स्त्री माना जाए या पुरुष, इस मुद्दे पर डॉक्टरों और जेल के अफसरों के बीच लंबी बातचीत हुई। जोश को महिलाओं की जेल में रखा गया, क्योंकि पुरुषों की जेल में उनकी सुरक्षा को खतरा था। जोश कहते हैं, ‘वे डरे हुए थे। उन्हें लगता था कि मेरा रेप हो जाएगा क्योंकि मेरे पास वजाइना है।’
जेल की जिंदगी
जोश को जेल की जिंदगी रास आ गई। उन्हें लगा कि यहां उनका बेहतर ख्याल रखा जा रहा है। जेल की महिला साथियों का बर्ताव उनके प्रति दोस्ताना था। जिंदगी में पहली बार जोश को ये लगा कि वे अच्छी जिंदगी जी रहे हैं। जोश बताते हैं, ‘जेल में जिंदगी अच्छी थी। लोग मुझे जानना चाहते थे। मुझसे बातें करते थे। मेरा ख्याल रखते थे। मेरी जिंदगी में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि लोगों ने मेरा इतना ख्याल रखा हो।’
सजा पूरी होने के बाद जोश वापस उसी दुनिया में लौट आए, जिसे उन्होंने पीछे छोड़ दिया था। उन्होंने नौकरी के लिए आवेदन किया तो उनका क्रिमिनल रिकॉर्ड उनकी राह में बाधा बन गया। अखबारों में जोश के बारे में खबरें छप चुकी थीं। पुलिस जब उनसे पूछताछ कर रही थी तो उनकी जानकारी के बिना प्रेस वहां मौजूद था।
जोश ने फैसला किया कि वे एक बार फिर जेल जाएं। उन्होंने एटीएम मशीन के केबल काट डाले। वे पकड़े गए और उन्हें सवा दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया। ‘इस बार उन्होंने मुझे सीधे महिलाओं की जेल में भेजा। मैंने तय कर लिया था कि मैं जेल के बाहर फिर कभी कदम नहीं रखूंगा। मैं कैदखाने के हर कायदे तोड़े ताकि मेरी सजा की मियाद बढ़ती रहे।’ लेकिन जोश की योजना नाकाम हो गई और उन्हें जल्द ही रिहा कर दिया गया।
बाहर की दुनिया
जेल के भीतर जोश एक गैरसरकारी संगठन के एक लेक्चर में शामिल हुए थे। लेक्चर लैंगिक मुद्दों पर था और जोश ने यहीं पर जिंदगी में पहली बार ‘इंटरसेक्स’ शब्द सुना। यहीं उन्हें पता चला कि वे कानूनी रूप से अपनी महिला की पहचान छोड़ सकते हैं और पुरुष होने का हक हासिल कर सकते थे।
जेल से बाहर आने के बाद जोश ने एक सिक्योरिटी गार्ड के तौर पर काम किया। वे लो प्रोफाइल रहे ताकि पहचान बदलने के दस्तावेजों को जुटा सकें। इसके लिए जोश को एक मेडिकल सर्टिफिकेट चाहिए था जिससे ये साबित होता हो कि उनमें पुरुष के गुणसूत्र हैं। इसके अलावा उन्हें एक मानसिक स्वास्थ्य का भी सर्टिफिकेट चाहिए था। इन हेल्थ सर्टिफिकेट्स के लिए जोश ने पांच महीनों तक इंतजार किया और आखिरकार वो दिन आ ही गया जिसका उन्हें बेचैनी से इंतजार था।
बुरी खबर…
24 जून की सुबह वे सभी दस्तावेज लेकर अपने जन्म स्थान के जिला कार्यालय पहुंचे। वहां पहुंचने से पहले जोश ने कई बार ये तसल्ली की कि सारे दस्तावेज पूरे हैं या नहीं। उन्होंने पक्का इरादा कर रखा था लेकिन मन के एक कोने में कहीं डर भी था। जोश को लग रहा था कि कहीं आखिरी लम्हों में उनके किए कराए पर पानी न फिर जाए।
बदनसीबी से यही हुआ। जिला कार्यालय के अधिकारी ने कहा कि उनके पास पहचान साबित करने वाले दस्तावेज नहीं हैं। अधिकारी ने जोश को ये सलाह दी कि वे अपने माता-पिता को साथ ले आएं या फिर बचपन का कोई दोस्त उनके पक्ष में आकर गवाही दे। जोश को एक बार फिर घर जाना पड़ा और दोबारा से कोशिश करनी पड़ी।
आखिर पहचान मिल गई
अगले दिन जोश अपनी मां और एक पुराने भरोसेमंद दोस्त के साथ जिला कार्यालय पहुंचे। अधिकारी ने फोन पर बैंकॉक में अपने सीनियर अधिकारियों से पूछा कि इस असामान्य आवेदन को कैसे डील किया जाए। थोड़ी देर बाद जोश को अपना टाइटल बदलने की मंजूरी दे दी गई, लेकिन इससे पहले उन्हें एक बार फिर मेडिकल जांच से गुजरना पड़ा। ‘मैं अब खुद को अपनी बदकिस्मती से आजाद कर सकता हूं। मैं आसमां में उड़ रहा हूं। मैं चीख-चीख कर दुनिया को ये बताना चाहता हूं कि मेरी जिंदगी का नया अध्याय शुरू हो गया है। मुझे अब किसी झूठी पहचान की जरूरत नहीं रही।’