भारत में सभी बैंक प्राइवेट हो जाएं तो क्या होगा?आइए जानते हैं कि इस पर एक्सपर्ट क्या कहते हैं

एक्सपर्ट क्या कहते हैं

भारत में सभी बैंक प्राइवेट हो जाएं तो क्या होगा? क्या बैंकों का निजीकरण सही है या नहीं? क्या आपके मन में कभी यह सवाल आता है। अगर आपका जवाब हां है तो आइए जानते हैं कि इस पर एक्सपर्ट क्या कहते हैं।

पिछले कुछ समय से पब्लिक सेक्टर के बैंकों के निजीकरण के मसले पर जोर-शोर से चर्चा हो रही है। केंद्र सरकार ने बैंकिंग सुधारों के अंतर्गत कई बड़े सरकारी बैंकों का विलय करते हुए महज तीन वर्षों के भीतर ही सार्वजनिक क्षेत्र के 27 बैंकों को 12 बैंकों में समेट दिया है। वैसे सरकार ने यह भी कहा है कि निजीकरण के मुद्दे को लेकर बैंकिंग क्षेत्र को रणनीतिक क्षेत्र के रूप में मान्यता रहेगी।इस बीच हाल ही में नेशनल काउंसिल आफ एप्लाइड इकोनमिक रिसर्च की महानिदेशक पूनम गुप्ता और नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया द्वारा एक अकादमिक लेख प्रकाशित करने के बाद सरकारी बैंकों के निजीकरण की बहस और तेज हो गई है। इस लेख में संस्तुति की गई थी कि केवल भारतीय स्टेट बैंक को सरकारी हाथों में रखते हुए शेष सभी सरकारी बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। ऐसे में इस मसले को समग्रता में समझना होगा।इस बीच हाल ही में नेशनल काउंसिल आफ एप्लाइड इकोनमिक रिसर्च की महानिदेशक पूनम गुप्ता और नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया द्वारा एक अकादमिक लेख प्रकाशित करने के बाद सरकारी बैंकों के निजीकरण की बहस और तेज हो गई है। इस लेख में संस्तुति की गई थी कि केवल भारतीय स्टेट बैंक को सरकारी हाथों में रखते हुए शेष सभी सरकारी बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। ऐसे में इस मसले को समग्रता में समझना होगा।

वित्तीय समावेशन 

सरकारी बैंकों के निजीकरण के समर्थकों के तर्क अनेक कारणों से औचित्यपूर्ण नहीं ठहराए जा सकते। वर्ष 1969 में जब पहली बार 14 निजी बैंकों का और 1980 में छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, तो उस समय उसका मुख्य उद्देश्य सर्वसमावेशी विकास को बढ़ावा देना था। वैसे तब से अभी तक परिस्थितियों में काफी बदलाव आया है। आरबीआइ के निर्देशों के अनुसार निजी बैंकों को भी राष्ट्रीय उद्देश्यों के साथ जोड़ने का प्रयास हो रहा है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि तमाम नियमों, उपनियमों और निर्देशों के बावजूद सर्वसमावेशी विकास हेतु जितना काम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक करते हैं, निजी क्षेत्र के बैंक नहीं करते।

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वित्तीय समावेश के उद्देश्य से जीरो बैलेंस वाले जनधन खाते खोले गए। अभी तक ऐसे 46 करोड़ जनधन खाते खोले जा चुके हैं, जिनके माध्यम से न केवल गरीब, आमजन की बैंकों तक पहुंच बन पाई है, बल्कि सरकार द्वारा व्यापक मात्र में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण इन्हीं खातों के माध्यम से संभव हुआ, जो आधार और मोबाइल फोन के साथ जुड़े हैं। किसान निधि का अंतरण हो या लगभग 20 करोड़ महिलाओं को कोविड संबंधी नकदी का अंतरण, यह सभी प्रधानमंत्री जनधन योजना के कारण ही हो पाया है। लेकिन, आज जब निजी बैंकों का जमा और उधार में हिस्सा लगभग 37 प्रतिशत है, पर निजी बैंकों द्वारा मात्र 10 प्रतिशत जनधन खाते ही खोले गए।

इतना ही नहीं, दीनदयाल अंत्योदय योजना के अंतर्गत छह करोड़ महिलाओं को जीविका ऋण देने में भी सरकारी बैंकों और उन बैंकों द्वारा प्रायोजित क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा 90 प्रतिशत ऋण प्रदान किए गए। इसी प्रकार अति लघु उद्यमों और व्यापारियों को ऋण देने का कार्य भी सरकारी बैंकों द्वारा ही किया जाता है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर निजी क्षेत्र के बैंकों के लाभ सरकारी बैंकों से ज्यादा होंगे ही, क्योंकि ये बैंक वित्तीय समावेशन के सरोकार से कन्नी काट लेते हैं। सरकारी बैंकों को सभी सरकारी योजनाओं को लागू करने की बाध्यता रहती है, ऐसे में निजी क्षेत्रों के बैंकों को इसलिए सक्षम मान लेना कि वे लाभ ज्यादा कमा रहे हैं, उचित नहीं होगा। यदि सरकारी बैंकों के कामकाज में से वित्तीय समावेशन और सोशल बैंकिंग जैसे तथ्यों को हटा दिया जाए, तो उनके भी लाभ निजी बैंकों जैसे ही बढ़ सकते हैं।

एनपीए 

जहां तक सरकारी बैंकों के एनपीए का सवाल है, यह सर्वविदित है कि यूपीए शासन के दौरान वर्ष 2004 से 2014 तक एक दशक में इन्फ्रास्ट्रक्चर ऋण के नाम पर कई बड़े ऋण दिए गए। उन

में से बहुत से ऋण डूब गए। किसी न किसी रूप से इन डूबे ऋणों की वसूली के लिए नियमों में बदलाव किया गया और नया दिवालिया कानून बनाया गया। लेकिन इस कारण सरकारी बैंकों का काफी पैसा डूब गया। चूंकि अब नियमों को सख्त बनाया गया है और भविष्य में इस प्रकार की गलतियों के दोहराए जाने की आशंकाएं बहुत सीमित हैं, लिहाजा सरकारी बैंकों द्वारा की जा रही सोशल बैंकिंग और वित्तीय समावेशन के मद्देनजर सरकारी बैंकों का निजीकरण नुकसानदायक हो सकता है।

कुछ विशेषज्ञों का यह मानना है कि वर्तमान की बैंकिंग समस्याओं का समाधान निजीकरण में नहीं है। अनुभव यह बताता है कि किसी भी संस्थान की कुशलता उसके स्वामित्व पर निर्भर नहीं करती, बल्कि उसके प्रबंधन पर निर्भर करती है। देखा जाए तो बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद आम जनता का विश्वास वित्तीय संस्थाओं पर बढ़ा और देश में गृहस्थों की बचत में खासी वृद्धि हुई।

यही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र के ही भारतीय जीवन बीमा निगम ने भी घरेलू बचत को प्रोत्साहन दिया। इस सबके कारण देश में विकास के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन जुटाए जा सके। सरकारी बैंकों में केंद्र सरकार के प्रश्रय के कारण कोई सरकारी बैंक नहीं डूबा, लेकिन इस बीच में कई बार कई निजी बैंकों को सरकारी बैंकों और सरकार के हस्तक्षेप के द्वारा डूबने से बचाया गया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूर्व कई निजी बैंक डूबे जिसके कारण आम जनता को खासा नुकसान हुआ।

हाल ही में लक्ष्मी विलास नामक एक निजी बैंक को सिंगापुर के एक बैंक के हवाले करना पड़ा था। ऐसे में यदि बैंकों के निजीकरण के चलते यदि देश का वित्तीय क्षेत्र विदेशी आधिपत्य में चला जाता है तो उसके दुष्परिणाम अर्थव्यवस्था को भुगतने पड़ेंगे। इसलिए सरकारी बैंकों के निजीकरण को केवल कुछ संस्थाओं या कुछ अर्थशास्त्रियों द्वारा दिए गए सुझावों के आधार पर अंजाम देना उचित नहीं होगा। इसके संभावित दुष्प्रभावों के बारे में भी अध्ययन करना आवश्यक है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने कहा कि केवल कुछ अधिकारियों की संस्तुति पर सरकारी बैंकों का निजीकरण उचित नहीं है। इसके संभावित दुष्परिणामों के बारे में भी अध्ययन करना आवश्यक है। किसी संस्थान की सफलता में उसके प्रबंधन की कुशलता का योगदान सर्वाधिक होता है।

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