अर्थव्‍यवस्‍था में मंदी और सुस्‍ती के क्‍या होते हैं मायने, ये आंकड़े होते हैं इकोनॉमी के आईने

पिछले कुछ समय से अर्थव्यवस्था में सुस्ती की चर्चा शुरू हो गई है। बीते दिनों कई सेक्टर्स में जॉब कट की खबरें सामने आईं। ऐसे में हर जगह मंदी और सुस्ती जैसे शब्दों का इस्तेमाल होने लगा है। यहां हम आपको मंदी और सुस्ती के तकनीकी मायने बता रहे हैं। तकनीकी भाषा में मंदी का मतलब है लगातार दो तिमाहियों के दौरान अर्थव्यवस्था में संकुचन (Contraction)। जबकि मौजूदा समय में हमारी जीडीपी में ग्रोथ तो हो रही है, लेकिन ग्रोथ रेट में लगातार गिरावट है। इसीलिए इसे मंदी नहीं कहा जा सकता है। हालांकि, इस स्थिति को सुस्ती कहना कुछ हद तक जायज है क्योंकि आर्थिक क्रियाकलापों की गति लगातार धीमी हो रही है। शुक्रवार 30 अगस्त को CSO द्वारा जारी GDP के आंकड़े भी इस बात के गवाह हैं कि अर्थव्यवस्था के कई सेक्टरों की ग्रोथ रेट में बड़ी गिरावट आई है।

बिस्कुट बनाने वाली कंपनी Parle ने भी अपने यहां से लोगों को नौकरी से निकालने का हाल ही में एलान किया था। कंपनी का तर्क था कि जीएसटी के बढ़े रेट से उसे नुकसान हो रहा है। उधर, ब्रिटानिया ने अपने प्रोडक्ट के वजन को कम करने की बात कही थी। असम के चाय उद्योग की तरफ से भी सरकार से मदद की अपील की गई। टेक्सटाइल उद्योग ने बाकायदा अखबार में विज्ञापन निकलवाकर अपनी बदहाली की दशा बयां की थी। इसी बीच कंपनियों की तिमाही रिपोर्ट भी आने लगी जिसमें कई कंपनियों ने अपने वहां भारी नुकसान दिखाया था। इन हालातों को देखते हुए वित्त मंत्रालय हरकत में आया और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अर्थव्यवस्था को बूस्ट करने के लिए ’32 सूत्रीय’ योजना की घोषणा कीं। हालांकि, वित्त मंत्री का कहना था कि भारत में मंदी जैसी कोई बात नहीं है, भारत की अर्थव्यवस्था बाकी देशों से बेहतर हालत में है।

निर्मला सीतारमण के इस फैसले के कुछ ही दिन बाद केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावेड़कर और पीयूष गोयल ने किसानों के लिए चीनी पर सब्सिडी और FDI को लेकर कई बड़े एलान कर दिए, जिसमें डिजिटल मीडिया में 26 फीसद एफडीआई की भी मंजूरी थी। अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए सरकार लगातार नए कदम उठा रही है। लेकिन, इसका असर कब तक देखने को मिलेगा इसके लिए इंतजार करना होगा।

आम तौर पर ऐसा कब माना जाता है कि अर्थव्यवस्था की हालत थोड़ी खस्ता है, या इकॉनोमी को और रफ्तार देने की दरकार है। हम इस खबर में ऐसे ही कुछ बड़ी बिन्दुओं की चर्चा कर रहे हैं। जिसकी इर्द-गिर्द पूरी इकॉनोमी घूमती है।

खपत में कमी

अर्थव्यवस्था की रफ्तार अगर धीमी पड़ती है तो इसका मतलब है कि खपत में कमी हो जाती है। इसमें साबुन, कपड़ा, बिस्कुट, तेल, धातु जैसी सामान्य चीजों के खपत में कमी आ जाती है, साथ-साथ घरों और वाहनों की बिक्री घट जाती है। जानकार बताते हैं कि अगर गाड़ियों की बिक्री घट रही है तो यह सुस्त अर्थव्यवस्था का संकेत है। क्योंकि गाड़ी लोग तभी खरीदते हैं जब उनके पास अतिरिक्त पैसा हो।

आर्थिक विकास दर का कम होना

अर्थव्यवस्था की रफ्तार कम होने पर आर्थिक गतिविधियों में चौतरफा गिरावट आती है। यदि किसी अर्थव्यवस्था की विकास दर या जीडीपी तिमाही-दर-तिमाही लगातार घट रही है, तो समझें अब इसे बूस्ट करने की जरूरत है। किसी देश की किसी खास क्षेत्र के उत्पादन में वृद्धि की दर को विकास दर कहा जाता है।

औद्योगिक उत्पादन का कम होना

अर्थव्यवस्था में उद्योग के उत्पाद का बड़ा महत्व है। जब उद्योग की रफ्तार धीमी होगी फिर उत्पाद बनने कम हो जाएंगे। इसमें निजी सेक्टर की बड़ी भूमिका होती है। जब सुस्ती आती है तो उद्योगों का उत्पादन कम हो जाता। कल-कारखाने बंद होने लगते हैं। फैक्ट्रियों पर ताले लग जाते हैं, इसकी बड़ी वजह होती है कि बाजार में बिक्री घट जाती है। जब माल बनेगा नहीं तो माल ढुलाई, बीमा, गोदाम, वितरण जैसी सभी सेवाएं रूक जाएंगी।

बेरोजगारी बढ़ना

अर्थव्यवस्था में सुस्ती से बेरोजगारी बढ़ जाती है। लोगों के पास रोजगार कम हो जाते हैं। उत्पादन नहीं होगा तो उद्योग बंद हो जाएंगे। फिर लोगों की छंटनी शुरू हो जाती है। दरअसल, रोजगार को लेकर उत्पादन का एक पूरा चक्र जुड़ा है, जॉब के लिए इसी से सब कुछ निर्भर करता है।

न बचत होती है न निवेश के लिए पैसे बचते हैं

लोगों की कमाई के बाद अपने खर्च निकालने के अलावा जो पैसा बचता है वह निवेश में इस्तेमाल होगा। बैंक में रखा पैसा भी इसी दायरे में आता है। अर्थव्यवस्था के बुरे दौर में निवेश कम हो जाता है क्योंकि लोगों की कमाई कम हो जाती है। इससे वह कुछ खरीद नहीं पाते और अर्थव्यवस्था में पैसे का प्रवाह घट जाता है।

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