देश भर में विविध किस्म के होनेवाले अपराधों के बारे में जिन्हें समझने और नियंत्रित की जरूरत है….

हर दो मिनट में एक वाहन चोरी, हर पांच मिनट में एक अपहरण, प्रत्येक छह मिनट में एक महिला पर हमला, हर नौ मिनट में एक हत्या का प्रयास, प्रत्येक 16 मिनट में एक हत्या, इतने मिनट में ही एक दुष्कर्म, हर 17 मिनट में एक डकैती, हर 25 मिनट में एक यौन उत्पीड़न की घटना, हर 54 मिनट में एक फिरौती व ब्लैकमेल और हर 70 मिनट में एक दहेज हत्या। हालांकि वर्ष 2017 में अनेक राज्यों ने हिंसक अपराधों में इसके पिछले वर्ष (2016) की तुलना में कमी दर्ज की है, लेकिन यहां मौजूद अपराधों की समय सारणी से जो तस्वीर उभरकर सामने आती है, वह भी कम भयावह नहीं है।

एनसीआरबी के आंकड़े

हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने जो 2017 का अपराध डाटा जारी किया है, उससे मालूम होता है कि 1992 के बाद से भारत की हत्या दर में धीरे-धीरे कमी आई है और 1963 के बाद वह 2017 में अपनी सबसे कम दर पर है- 2.49 हत्याएं प्रति एक लाख आबादी पर। चोरी के मामलों में भी 2015 की तुलना में 2017 में कमी आई है। दुष्कर्म व यौन उत्पीड़न के मामले जो 2017 में दर्ज हुए हैं, उनमें भी 2015 के मुकाबले में कमी आई है, जो 2016 में वृद्धि दिखा रहे थे।

एक सवाल

सवाल यह भी है कि एनसीआरबी ने 2017 का अपराध डाटा 2019 के लगभग आखिर में क्यों जारी किया है? वर्ष 1953 से निरंतर प्रकाशित की जा रही ‘भारत में अपराध’ रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जो देश में कानून व्यवस्था की स्थिति को जाहिर करती है और यह भी कि सरकारें दोषियों को सजा दिलाने में कितनी सफल या असफल रही हैं। अगर दैनिक अखबारों में स्थानीय खबरों पर गौर किया जाए तो भारत के बहुत से शहर, विशेषकर दिल्ली, वर्तमान में अपराधों में बढ़ती तेजी रिपोर्ट कर रहे हैं। वर्तमान में संकट का सामना कर रहे नागरिकों के लिए 2017 का डाटा अपराध नियंत्रण योजनाएं बनाने के लिए विशेष उपयोगी नहीं है। वर्ष 2018 का अपराध डाटा भी तुरंत जारी किया जाना चाहिए।

अपराध की नई श्रेणियां 

हालांकि 2017 की रिपोर्ट में अपराध की कुछ नई श्रेणियों को शामिल किया गया है, लेकिन किसानों की आत्महत्या व मॉब लिंचिंग के मामलों को अलग श्रेणी में रिपोर्ट न करना चिंताजनक है। किसानों की आत्महत्या 2015 तक अलग श्रेणी में रिपोर्ट की जाती थी, जिसे बंद कर दिया गया। रिपोर्ट दर्ज न करने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता है, बल्कि रिपोर्ट करने से समाधान में सहयोग मिलता है और समस्या को नियंत्रित करने की संभावना बढ़ जाती है। यह सही है कि हत्या दर में कमी आई है, लेकिन हत्या का प्रयास 3.7 (2015) से बढ़कर 4.0 (2017) हो गया है।

अपराध में टॉप पर ये राज्‍य

जो राज्य अपराध चार्ट को टॉप कर रहे हैं, वह हैं- झारखंड व हरियाणा (हत्या में), बंगाल व बिहार (हत्या के प्रयास में), दिल्ली और असम (अपहरण में), दिल्ली और महाराष्ट्र (चोरी में), मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ (दुष्कर्म में) और ओडिशा व दिल्ली (यौन हिंसा में)। इन राज्यों को विशेष रूप से कमर कसने की जरूरत है ताकि जनता सुरक्षा का एहसास कर सके। पुलिस का काम अपराध नियंत्रित करना है, लेकिन चिंताजनक बात यह भी है कि 2017 में हिरासत में दुष्कर्म की कुल 89 वारदातें हुईं, जिनमें से 43 जेलों या रिमांड गृहों में हुईं।

मामलों में सजा 

इसके अलावा दुष्कर्म के 18 मामले सरकारी कर्मचारियों, 12 मामले हॉस्पिटल स्टाफ, 18 मामले पुलिसकर्मियों और एक मामला सशस्त्र बलों के विरुद्ध दर्ज किया गया। वर्ष 2016 में हिरासत में दुष्कर्म के सिर्फ 10 मामले दर्ज हुए थे। वर्ष 2016 तक हिरासत में दुष्कर्म के 232 मामले अदालत में विचाराधीन थे, जिनमें से चार में सजा मिली व नौ बरी हुए। वर्ष 2015 में हिरासत में दुष्कर्म के 95 मामले रिपोर्ट हुए थे, जिनमें से 91 उत्तर प्रदेश के थे, दो उत्तराखंड के और एक-एक बंगाल व आंध्र प्रदेश का। उत्तर प्रदेश से जो चार गैंग रेप रिपोर्ट हुए वह हिरासत में दुष्कर्म के मामले थे।

साइबरक्राइम एक बड़ी समस्या

आज साइबरक्राइम भी एक बड़ी समस्या है। इस संदर्भ में अगर मेट्रोपोलिटन शहरों की बात करें तो बेंगलुरु में सबसे ज्यादा अपराध रिकॉर्ड हुए। वर्ष 2017 में 21,796 साइबरक्राइम देश में रिकॉर्ड किए गए, जिनमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश (4,971), महाराष्ट्र (3,694) और कर्नाटक (3,174) में दर्ज किए गए। मेट्रोपोलिटन शहरों में बेंगलुरु (2,743), मुंबई (1,362) व जयपुर (685) टॉप पर रहे। बहरहाल, भारत में जो सामाजिक- आर्थिक व क्षेत्रीय विविधताएं हैं और राज्यों, शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस की जो कार्यप्रणाली है, विशेषकर महिलाओं के विरुद्ध अपराधों से संबंधित, तो यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि कुछ डाटा उतना जाहिर नहीं करता जितना छुपाता है।

यहां के लोग अधिक जागरुक

दिल्ली, मुंबई व केरल जैसी जगहों में नागरिकों में अधिकारों की जागृति अधिक है और मीडिया की पहुंच भी ज्यादा है, जिससे पुलिस के लिए शिकायतें दर्ज करना लाजमी हो जाता है, इसलिए यहां अपराध दर अधिक प्रतिबिंबित होता है। दूसरी ओर जिन क्षेत्रों में अधिकारों की जानकारी कम है और गरीबी अधिक है उनमें देखा गया है कि पुलिस शिकायतें कम दर्ज करती है, अपना रिकॉर्ड अच्छा दिखाने के लिए। यह चिंताजनक है। अत: ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है कि कोई अपराध बिना दर्ज हुए न रहे, तभी अपराधों को नियंत्रित करने की उम्मीद बढ़ सकती है।

पुलिस को अपना रिकॉर्ड ‘अच्छा’ दिखाने के लिए रक्षात्मक नहीं होना चाहिए, बल्कि उसका जोर इस बात पर होना चाहिए कि तेजी से आरोप पत्र दाखिल करे, जल्द ट्रायल हो और न्याय सुनिश्चित हो सके। अपराधी को सजा और पीड़ित को त्वरित न्याय ही बढ़ते अपराध रोकने का अच्छा तरीका है। अब ताजा डाटा यह बताता है कि पुलिस ने दुष्कर्म के 86 प्रतिशत मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया, लेकिन ट्रायल कोर्ट्स दुष्कर्म के लंबित पड़े सिर्फ 13 प्रतिशत मामलों में ही निर्णय दे सका। इस तरह अपराध कहां रुकेंगे? पुलिस व न्यायपालिका को अधिक संसाधन आवंटित किए जाएं, उनकी क्षमता में सुधार लाया जाए, यह ही वक्त की जरूरत है।

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