“भय बिनु होई न प्रीति”

ध्वनि मधुर भी होती है और कर्कश भी। ध्वनि संगीत भी है और शोर भी। इसी शोर के एक प्रमुख माध्यम लाउडस्पीकर ने कई राज्यों में राजनीति को गरम हवा देते हुए बड़े ही ‘लाउडली’ समसामयिक चर्चाओं में अपना स्थान बनाया है। लेकिन आज हम राजनीति नहीं बल्कि विज्ञान, संविधान, मानव जीवन की गुणवत्ता एवं कानून के आधार पर इस विषय को समझेंगे।

लाउडस्पीकर शब्द में स्पीकर के पहले लगा हुआ ‘लाउड’ स्वयं घोषणा करता है कि मैं लाउड हूं, तेज हूं। मेरा प्रयोग यदा-कदा ही होना चाहिए लेकिन मेलों, शादियों, पार्टियों, धार्मिक स्थलों आदि में इसक प्रयोग धड़ल्ले से होता है। विज्ञान के अनुसार वैसे तो मनुष्य के कानों की सहनीय क्षमता 180 डेसीबल तक होती है परन्तु 85 डेसीबल से ज्यादा की ध्वनि लगातार सुनते रहने से श्रवण क्षमता समाप्त होने की आशंका बनी रहती है। आप इसे ऐसे समझिए कि सामान्यतया बजने वाले लाउडस्पीकरों की ध्वनि/शोर 70 डेसीबल से 90 डेसीबल तक होती है। यह शोर स्वास्थ्य पर अन्य हानिकारक प्रभाव भी डालता है। इससे अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, मानसिक तनाव, हृदय संबंधी रोग तथा अन्य मानसिक विकृतियां हो सकती हैं। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1972 में असहनीय ध्वनि को प्रदूषण का ही एक प्रकार स्वीकार किया था।

सांविधानिक दृष्टि से देखा जाए तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऊंचे स्वर में लाउडस्पीकर से अपनी बात कहने को अनुच्छेद 19 के तहत मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार माना है परन्तु इसे अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मिले गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने के अधिकार से सीमित किया है। अर्थात ध्वनि प्रदूषण मुक्त जीवन जीना अपनी बात कहने के लिए शोर करने से अधिक महत्वपूर्ण है।

आप एक ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जिसमें एक 13 साल की बच्ची का बलात्कार हो रहा हो, वह सहायता के लिए चीख रही हो परन्तु कहीं पास ही बज रहे एक लाउडस्पीकर के कारण वह कातर स्वर किसी को सहायता के लिए बुलाने में असमर्थ रह जाय। इसी मामले में निर्णय सुनाते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2005 में ध्वनि सीमा एवं ध्वनि उत्पादक यंत्रों के उपयोग संबंधी कुछ दिशानिर्देश दिए थे। इसमें रात 10 दस बजे से सुबह 6 बजे तक लाउडस्पीकरों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया था। विशेष सांस्कृतिक और धार्मिक अवसरों पर रात 12 बजे तक छूट दी गई थी और ऐसा केवल वर्ष में 15 दिन ही किया जा सकता था। साथ ही सरकार को विभिन्न क्षेत्रों के लिए तय मानकों के अनुरूप ध्वनि तीव्रता को सीमा में लाने के निर्देश दिए गए थे।

सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत बने ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण नियम, 2000 में इन दिशानिर्देशों को सम्मिलित करते हुए इसे वर्ष 2010 में अधिसूचित कर दिया था। इसमें आवासीय, वाणिज्यिक, एवं औद्योगिक क्षेत्रों के लिए ध्वनि सीमा दिन में क्रमशः 55, 65 एवं 75 डेसीबल तथा रात में क्रमशः 45, 55 एवं 70 डेसीबल निर्धारित किया गया।

विज्ञान, संविधान और न्यायालय ने अपना काम कर दिया और कानून बनाकर सरकार ने भी। अब बारी थी इस कानून को लागू करवाने की। मेलों, शादियों, पार्टियों आदि में तो इन नियमों को कुछ सीमा तक लागू करवाया गया परंतु जैसे ही बात आई धार्मिक स्थलों पर लगे बिना अनुमति वाले लाउडस्पीकरों को हटवाने या अनुमति वाले लाउडस्पीकरों की आवाज़ तय सीमा में लाने की वहां सरकार अपेक्षानुरूप निर्णय नहीं ले सकी। भारत में धर्म एक अतिसंवेदनशील विषय है और कानून को धार्मिक विषयों के ऊपर रख पाना एक चुनौती। ऐसे में सभी सरकारों के हाथ पांव फूल जाते हैं। कोई भी सरकार धार्मिक विषयों में हस्तक्षेप करके जनता जनार्दन को रुष्ट नहीं करना चाहती।

इस संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस प्रकार जीवन की गुणवत्ता, मानव स्वास्थ्य एवं कानून को धर्म एवं व्यक्तिगत आस्था से ऊपर रखकर ध्वनि संबंधी मानकों को लागू करने का प्रयास किया है वह अन्य राज्यों के लिए भी अनुकरणीय है। उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में एक अभियान चलाकर बिना अनुमति वाले 10000 से अधिक लाउडस्पीकरों को हटवाने का काम किया है। साथ ही अनुमति वाले 35000 से अधिक लाउडस्पीकरों की आवाज़ ध्वनि मानकों के अनुरूप लाई गई।

स्वयं प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस गोरक्षधाम पीठ से आते हैं उसे भी रियायत नहीं दी गई। यह ‘उदाहरण के साथ नेतृत्व’ का एक अप्रतिम उदाहरण है। उत्तर प्रदेश जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा राज्य है। ऐसे राज्य में बिना किसी विरोध या प्रदर्शन के धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकरों का उतर जाना प्रदेश की चुस्त कानून व्यवस्था की कहानी स्वयं कह रहा है। यह स्थापित हो गया कि कानून लागू करने में निष्पक्षता और कठोरता अचूक अस्त्र हैं।

जिस प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार ने नागरिकता कानून संशोधन अधिनियम के विरोध में हुए हिंसक प्रदर्शनों के बाद अराजकता फैलाने वालों से ही सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई की थी उसने जनता के मन में कानून का भय बिठा दिया है। संदेश स्पष्ट है कि कानून का उल्लंघन करके बच जाना अब प्रचलित व्यवस्था नहीं है। यह भय सर्वथा उचित भी है और शांति के लिए आवश्यक भी।

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